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सागरमल जैन
SAMBODHI
सम्बन्ध सरस्वती देवी से नहीं है । जहाँ तक भाष्य शब्द साहित्य की टीकाओं का प्रश्न है, अभिधानराजेन्द्रकोष में पंचकल्प भाष्य की टीका को उद्धृत करके श्रुतदेवता शब्द को व्याख्यातित करते हुए कहा गया है कि श्रुत का अर्थ है अर्हत् प्रवचन, उसका जो अधिष्ठायक देवता होता है, उसे श्रुतदेवता कहते हैं । इस संबंध में अभिधानराजेन्द्रकोष में कल्पभाष्य से निम्न गाथा भी उद्धृत की है
सव्वं च लक्खणो-वेयं, समहिदुति देवता ।
सुत्तं च लक्खणावेयं, जेए सव्वरारागु-भासियं ॥ यद्यपि मुझे बृहतकल्पभाष्य में यह गाथा नहीं मिली । संभवत: पंचकल्पभाष्य की होगी, क्योंकि उन्होने यदि इसे उद्धृत किया है तो इसका कोई आधार होना चाहिए । संभवत: यह पंचकल्पभाष्य से उद्धृत की गई हो ! इसमें श्रुत का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो सर्वज्ञभाषित है, वह श्रुत है
और जो उसे सर्वलक्षणों से जानता है या अधीत करता है, वह श्रुतदेवता है । भाष्यसाहित्य में श्रुतदेवता या सरस्वती का अन्य कोई उल्लेख है, ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है । यद्यपि भाष्यसाहित्य से किंचित परवर्ती पंचसंग्रह नामक ग्रंथ के पंचमद्वार रूप पाँचवे भाग में श्रुत देवता के प्रसाद की चर्चा हुई है। अभिधानराजेन्द्रकोष में उसकी निम्न गाथा उद्धृत की गई है
सुयदेवता भगवई, नानावरणीय कम्मसंघायं ।
तेसिखवेउ सययं, जेसिं सुयसायरे भत्ति ॥ इस गाथा का तात्पर्य यह है कि - "जिसकी श्रुत सागर में भक्ति है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म के समूह को श्रुत देवता सतत् रूप से क्षीण करे ।" इस गाथा की वृत्ति में टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि वस्तुत: कर्मो का क्षय श्रुतदेवता के कारण से नहीं, अपितु श्रुतदेवता के प्रति रही हुई भक्ति-भावना के कारण होता है । इसी प्रसंग में वृत्तिकार ने श्रुत के अधिष्ठायक देवता को व्यंतर देवयोनी का बताया है और यह कहा है कि साधक के ज्ञानावरणीय कर्मो के क्षय करने में समर्थ नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिक्रमणसूत्र में पांचवे आवश्यक में श्रुतदेवता के निमित्त कायोत्सर्ग किया जाता है 'सूयदेवयाए करेमि काउसग्गं' । वस्तुतः वह कायोत्सग भी श्रुतभक्ति का ही एक रूप है और यह ज्ञानावरणीय कर्मो के क्षय का निमित्त भी होता है, क्योंकि जैन सिद्धान्त व्यक्ति के कर्मो के क्षय का हेतु तो स्वयं के भावों को ही मानता है। फिर भी देवों से इस प्रकार की प्रार्थनाएँ जैन ग्रन्थों में अवश्य मिलती है। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चूके हैं, भगवतीसूत्र की लेखक प्रशस्ति में भी अज्ञानरूपी तिमिर की नाश की प्रार्थना श्रुतदेवता से की गई है।
श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधी आगमों में महानिशीथसूत्र सबसे परवर्ती माना जाता है। इसके सम्बन्ध में मूलभूत अवधारणा यह है कि इसकी एकमात्र दीमकों द्वारा भक्षित प्रति के आधार पर आचार्य हरिभद्र (लगभग आठवीं शती) ने इसका उद्धार किया । चाहे मूल ग्रन्थ किसी भी रूप में रहा हो, किन्तु इसका वर्तमान कालीन स्वरूप तो आचार्य हरिभद्र के काल का है, यद्यपि इसका कुछ अंश प्राचीन हो सकता है, किन्तु कौन सा अंश प्राचीन है और कौन सा परवर्ती है, यह निर्णय कर पाना