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कमला गर्ग, रजनी पाण्डेय
SAMBODHI
जयपुर राजवंश के संगीत प्रेम के पुष्ट प्रमाण वे ग्रन्थ हैं, जो विभिन्न कालों में आमेर, जयपुर में रचे गये१. संगीत कल्पतरु
- अशोकमल्ल वि.सं. १५५१ २. संगीत मलिक
- प्रहमदशाही १७१० ३. संगीत दर्पण
- दामोदर सरस्वती ४. संगीत रत्नाकर
शारंगदेव संगीत रत्नाकर कला निधि - कलानिधि वि.सं. १७३४ संगीत रत्नाकर रास प्रदीप
नूरखान संगीतोपनिषद्सार
सुधा कलश ८. हस्तक रत्नावलि
राघव वि.सं. १७३० राधागोविन्द संगीत सार - देवर्षि भट्ट ब्रजपाला १०. रागरत्नाकर
कवि राधा कृष्ण रागरागिनी संग्रह (सचित्र खरड़ा) - पंडित मधुसदन ओझा १२. राग चंद्रोदय
१५९०-१६१४ १३. राग मंजरी १४. नर्तन निर्णय १५. रागमाला
महन्त हरिवल्लभाचार्य १६. संगीत रत्नाकर
- हीरानंद व्यास १७. संगीत राग कल्पद्रुम जयपुर दरबार में गुणीजन खाने में भारतीय संगीत गायन परम्परा का विकास दो रूपों में हुआ१. राजदरबारों में मध्य युगीन शास्त्रीय गायन की परम्परागत शैली के रूप में । २. विभिन्न वैष्णव तथा पुष्टिमार्गीय भक्ति संप्रदायों में भगवान के पद तथा भक्ति रचनाओं की
शास्त्रीय परम्परा के रूप में ।
शास्त्रीय गायन परम्परा के अनुसार गुणीजन खाने के कलाकार राज्य में आयोजित विभिन्न उत्सवों में शास्त्रीय रागों के आधार पर ध्रुवपद, धमार, ख्याल, तराना, टपपा आदि का गायन करते थे। गायन शैली का दूसरा पक्ष शास्त्रीय दृष्टि से उतना भारी भरकम नहीं था । यह अपेक्षाकृत कम शास्त्रीय तथा भाव पक्ष में प्रबल था । वल्लभ, विठ्ठल तथा पृष्टिमार्गीय सम्प्रदायों में ध्रुपद, धमार शैली में विभिन्न रागों पर आधारित पद गायन शैली थी। इसी परम्परा प्रमुख की एक कड़ी हवेली संगीत है, जो आज भी मंदिरों, देवालयों में देखी जाती है ।
इस प्रकार संगीत गायन के दोनों ही रूपों को गुणीजन खाने के गायकों द्वारा बल मिला तथा शास्त्रीय गायन की विभिन्न विधाएँ यहाँ विकसित होती रहीं । कलाकारों की कला प्रवीणता के कारण .. इस राज्य में अनेक शैलियों ने जन्म लिया, जो जयपुर घरानों के नाम से प्रसिद्ध हुई ।