Book Title: Sambodhi 2010 Vol 33
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 139
________________ Vol. XXXIII, 2010 जयपुर नरेशों का संगीत प्रेम 133 सवाई जयसिंह ने यद्यपि गुणीजन खाने की स्थापना की थी, किन्तु उनके काल में नृत्य व संगीत के विषय में अधिक विवरण उपलब्ध नहीं होते हैं ।२६ किन्तु जिस शासक ने संगीत को संरक्षण देने के लिए एक स्थाई विभाग की स्थापना की हो वह स्वयं संगीत प्रेमी न हो यह तथ्य विश्वास योग्य नहीं है । इसलिये यह तो निश्चित् है कि सवाई जयसिंह भी संगीत प्रेमी रहे थे। सवाई प्रताप सिंह तथा सवई रामसिंह के राज्य में गुणीजन खाना भारत वर्ष के चोटी के कलाकारों का केन्द्र रहा । इस काल में उत्कृष्ट कोटि की कला तथा कलाकार गुणीजन खाने में आश्रय पाते थे । इस अद्वितीय संगीत के पीछे कलाकारों की अथक कलासाधना के साथ-साथ तत्कालीन नरेशों का संगीत प्रेम तथा समुचित सामाजिक और आर्थिक संरक्षण भी एक प्रमुख कारण रहा । इस काल में गुणीजन खाने की समृद्धि तथा उन्नति का कारण यह भी था कि दोनों महाराजा स्वयं भी अच्छे कलाकार थे। अतः इनका योगदान सक्रिय रूप में रहा जिसने जयपुर की संगीत परम्परा को खूब पनपने के अवसर प्रदान किये । १८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में महाराज सवाई प्रताप सिंह का काल गुणीजन खाने का ‘स्वर्ण युग' था । गुणीजन खाने को सवाई प्रताप सिंह ने ही सुव्यवस्थित तथा विकसित किया । उनके दरबार में 'कवि बाईसी', 'वैद्य बाईसी', 'वीर बाईसी', 'पंडित बाईसी' के साथ-साथ 'गंधर्व बाईसी' भी थे ।२८ बाईसी शब्द उन दिनों में सेना के लिये प्रयुक्त होता था । कलाप्रेमी प्रताप सिंह अपने दरबार के कलाकारों के समूहों को बाईसी ही कहते थे, भले ही उनकी संख्या बाईस हो अथवा अधिक कम । उनके लिये इन कलाकारों का महत्त्व किसी सेना से कम नहीं था । स्वयं कलाकार होने के नाते उनकी सेना उनकी 'कलावंत बाईसी' ही थी । प्रताप सिंह के काल में चांद खां जिनका दूसरा नाम दुल्ह खां भी समझा जाता है, बड़े गुणी कलावंत थे । सवाई प्रताप सिंह उनको अपना गुरु मानते थे और उनको 'बुद्ध प्रकाश' की उपाधि प्रदान की थी। प्रतापसिंह ने इन्हें गुणीजन का प्रधान भी नियुक्त किया था । बुद्ध प्रकाश उत्कृष्ट कोटि के संगीतविद थे। उन्होंने 'स्वरसागर' नामक संगीत ग्रन्थ की रचना की जिसमें विभिन्न रागों की सरगम और बंदिशें दी गई हैं । इस ग्रन्थ की दो रचनायें इसका प्रमाण देती हैं। ये दोनों 'ब्रजनिधि ग्रन्थावलि' में पृष्ठ ४८-४९ पर दी गई हैं–२९ . प्रथम राग कल्याण, ताल सुरफाख्ता : धप गम ग रे गम रे गरे सा । ध नि रे स प प ध सा रे । सरे गम रेग रे स ध नि रे स ॥ धप.....॥ स्थायी ॥ प प ध सं रें सं रें गं मं रें गं रें सं ध नि प ध म ग रे ग म रे ग नि रे स । सुच्छम सुरन सोध मध सरगम बनाय पाय रन तें भेद कर कर बुध प्रकास । रिझवन कारण अति प्रवीन परताप सारक सकल वरण षट् दरसन निवास ॥

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