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वसन्तकुमार म. भट्ट
SAMBODHI
पाणिनि और यास्क का काल-निर्धारण - एक अनुल्लिखित सन्दर्भ :
पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में कतिपय ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भो का निर्देश किया है कि जिसके आधार पर यास्क का पुरोवर्तित्व एवं पाणिनि का उत्तरवर्तित्व सिद्ध किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में - इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् – इन्द्रदृष्टम् - इन्द्रसृष्टम् – इन्द्रजुष्टम् – इन्द्रदत्तम् इति वा । 5 - 2 - 93 ॥
इस सूत्र में पाणिनि ने कहा है कि - इन्द्रियम् ऐसा अन्तोदात्त स्वरवाला शब्द निपातन से सिद्ध होता है। परन्तु वह शब्द इन्द्रस्य लिङ्गम्, इन्द्रेण दृष्टम, इन्द्रेण सष्टम, इन्द्रेण जष्टम, इन्द्रेण दत्तम् - जैसे अर्थों में प्रयुक्त होता है। ___ (काशिकावृत्तिकार यहाँ कहते है कि - इतिकरणः प्रकारार्थः । सति सम्भवे व्युत्पत्तिरन्यथापि कर्तव्या । अर्थात् इन्द्रेण दुर्जयम् । इस वाक्य का अर्थ "आत्मा से जो जितना मुश्कील है, वह इन्द्रिय है" यहाँ इन्द्रिय शब्द में रहे इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा होता है।)
इन्द्र देवता का पुराकथाशास्त्रीय अध्ययन करने से मालुम होता है कि - वेदमन्त्रों में, इन्द्र मूल में युद्ध के देवता थे, उसके बाद वह वृष्टि के देवता बनाये गये है। और अन्ततोगत्वा वह परमात्मा के स्थान पर भी स्थापित किये गये है। अतः शरीर में स्थित चैतन्य स्वरूप आत्मा को भी इन्द्र कहा गया है। दूसरी और लिङ्ग शब्द का अर्थ होता है :-लीनम् अर्थम् गमयति इति लिङ्गम् । अर्थात् शरीर में छीपे हुए आत्मा का अस्तित्व इन्द्रिय रूपी लिङ्ग से अनुमति होता है। अतः "इन्द्रियम्" शब्द का प्रथम अर्थ होता है - इन्द्रस्य लिङ्गम् । (काशिकाकार कहते है कि – इन्द्र आत्मा । स चक्षुरादिना करणेन अनुमीयते, न अकर्तृकं करणम् अस्ति ।) ___यास्क ने निरुक्त के दशम अध्याय में इन्द्र शब्द के जो विभिन्न निर्वचन दिये है, (इन्द्रवे द्रवति इति वा, इन्दौ रमते इति वा । 9-8, इन्द्रः कस्माद् । इरा अन्नम्, तेन सम्बन्धात् तद्हेतुभूतम् उदकं लक्ष्यते । लक्षितलक्षणया तेनापि तदाधारभूतो मेघः । 10-9) वह इन्द्र देवता को प्राधान्येन सोमप्रिय एवं वृष्टि के देवता के रूप में वर्णित करते है । परन्तु पाणिनि पूर्वोक्त सूत्र (5-2-93) से जो इन्द्रिय शब्द की व्युत्पति देते है, उसमें आत्मा रूपी दार्शनिक अर्थवाले इन्द्र शब्द को लेकर, घच् प्रत्यय का विधान करते है । घच् को इय आदेश हो कर इन्द्र से इन्द्रिय शब्द सिद्ध होता है ।
यहाँ ध्यातव्य बात यह है कि पाणिनि ने इन्द्र का जो एक वृष्टि के देवता रूप में वेदोक्त स्वरूप है, जिसको हम पुराकथाशास्त्रीय व्यक्तित्व कहते है, उसका निर्देश पूर्वोक्त सूत्र में नहीं किया गया है। परन्तु तदुत्तरवर्ती काल का दार्शनिक स्वरूप ध्यान में लेते हुए - इन्द्रलिङ्गम्, इन्द्रसृष्टम् इत्यादि कहा गया है। इसी तरह से, पाणिनि ने ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् । 3-2-87 सूत्र से ब्रह्महा - भ्रूणहा (दिति के भ्रूण की हत्या करनेवाला, दिति से मरुद्रण की उत्पति कथा) जैसे शब्दों की जो सिद्धि की है, इससे सूचित होता है कि महर्षि पाणिनि ने उत्तरवर्ती काल की पुराकथाओं का ही उल्लेख किया है । - इन दो सूत्रों से स्पष्टतया अनुमित हो सकता है कि पाणिनि यास्क के पुरोगामी आचार्य नहीं हो सकते। .