________________
114
वसन्तकुमार म. भट्ट
SAMBODHI
का तात्पर्य यह है कि विवक्षित अर्थ को आरम्भबिन्दु माना जाय तो वहाँ से शूरु करके वाक्य-सिद्धि पर्यन्त का व्याकरण पाणिनि ने बनाया है । परन्तु यह व्याकरण वहीं पर रुकता नहीं है । वह फिरसे वही वाक्य को लेकर, उसका भी रूपान्तर करके कृदन्त या तद्धितान्त, या समासादि रूप शब्दों का निर्माण भी करके दिखाता है। जिसके कारण पाणिनिय व्याकरण निरन्तर घुमता हुआ एक चक्र जैसा प्रतीत होता है । अतः हम कहे सकते है कि - पाणिनिय व्याकरण में दो तरह की विधियाँ प्रदर्शित की गई है :
पदत्व-सम्पादक विधियाँ और पदोद्देश्यक विधियाँ । १. पदत्व-सम्पादक विधियों में (क) सुबन्त एवं तिङन्त पदों की रचनाओं का समावेश होता है । तथा (ख) सरूप एवं विरूप एकशेष शब्दों की रचनाओं का समावेश होता है । २. पदोद्देश्यक विधियों में (क) कृदन्त, (ख) तद्धितान्त, (ग) समास, एवं (घ) सनाद्यन्त धातुओं की पद-रचनाओं का समावेश होता है ॥ - इस में पूरे पाणिनिय व्याकरण का अशेष प्रपञ्च समाविष्ट हो जाता है | यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से कहना होगा कि - यास्क अपने ग्रन्थ में इस तरह से पूरे वाग्व्यवहार (समग्र भाषा) को समाविष्ट नहीं करते है । बल्कि, निरुक्त लिखते समय इस तरह का उनका उपक्रम भी नहीं था ॥ ६. अष्टाध्यायी में वैदिक भाषा के व्याकरण का स्वरूप
महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में लौकिक एवं वैदिक संस्कृत भाषा का व्याकरण एक साथ में प्रस्तुत किया है। यह उनकी अपूर्व एवं अद्वितीय सिद्धि है - उसमें भी कोई विवाद नहीं है। परन्तु यह प्रश्न विचारणीय हैं कि पाणिनि ने दोनों तरह की संस्कृत भाषा का व्याकरण एक साथ में कैसे (किस ढंग से) प्रस्तुत किया है । एक तो शूरु में जैसे कहा है - पाणिनिय व्याकरण पृथक्करणात्मक नहीं है, परन्तु प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन प्रस्तुत करके वाक्य की निष्पादना करनेवाला व्याकरण है । तथा उसमें भी, पाणिनि ने अपने समकाल में जो लौकिक संस्कृत बोली जाती थी उस भाषा का वर्णन प्रस्तुत करने का आशय रखा है। लेकिन भाषा का वर्णन करते समय यह भी सम्भव था कि वे, वैदिक भाषा में से लौकिक संस्कृत भाषा की उत्क्रान्ति कैसे हुई है - यह ऐतिहासिक दृष्टि से व्याकरण की रचना करे । परन्तु पाणिनि ने इस तरह का भी वैदिक व्याकरण नहीं लिखा है। पाणिनि ने तो अपने अष्टाध्यायी व्याकरण में सर्वत्र लौकिक संस्कृत भाषा के निरुपण से प्रारम्भ करके, उस लौकिक संस्कृत के विरोध में वैदिक संस्कृत भाषा में क्या अन्तर है - इस तरह का निरूपण किया है। उदाहरण रूप से देखे तो - प्राग्रीश्वरान्निपाताः । 1-4.56 सत्र से निपातों का वर्णन आरम्भ करके, प्रादयः । (1-4-58), उपसर्गाः क्रियायोगे । (1-4-59) से कहा है कि प्रादिनिपात उपसर्गसंज्ञक है और उसका क्रियापद के योग में प्रयोग होता है । तथा, ते प्राग्धातोः (1-480) से बताते है कि उपसर्ग (एवं गतिसंज्ञक) का प्रयोग धातु के पूर्व में ही होता है । – यहाँ पहेले लौकिक संस्कृतभाषा की व्यवस्था बतायी गई है । तत्पश्चात् आगे चल कर पाणिनि कहते है कि छन्दसि परेऽपि । (1-4-81), व्यवहिताश्च । (1-4-82) - अर्थात् वेदमन्त्रों में ये उपसर्गसंज्ञक प्रादि निपात धातुओं (क्रियापदों) के पीछे भी प्रयुक्त होते है, और कदाचित् किसी भी दो शब्दों के व्यवधान