Book Title: Sambodhi 2010 Vol 33
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 125
________________ Vol. XXXIII, 2010 प्राकृत भाषा : जितनी सहज उतनी सरल 119 विभाजित करके नियमबद्ध तरीके से समझाने का प्रयत्न किया जाता है । शब्दों के साधुत्व को स्थिर करना तो व्याकरण का लक्ष्य है परन्तु भाषा सिखाना व्याकरण का लक्ष्य नहीं है । व्याकरण शास्त्र भी सामान्य तथा अपवाद के नियम से प्रवृत्त होता है । प्रत्येक शब्द को व्याकरण की सहायता से नहीं बताया जा सकता । इस प्रसंग में एक प्रचलित कथन है-बृहस्पति ने इन्द्र को एक सहस्त्र वर्ष तक शब्दों का साधुत्व और असाधुत्व समझाया परन्तु वे शब्दों का पार नहीं पा सके । व्यवस्थित व्याकरण की सहायता से भी पदों के साधुत्व को जाना जा सकता है परन्तु भाषा को नहीं सीखा जा सकता । क्योंकि भाषा पदों का समूह मात्र नहीं है, भाषा की इकाई भी पद न होकर वाक्य है । इसी कारण कुमारिल के अभिहितान्वय सिद्धान्त को निरस्त करके प्रभाकर का अन्विताभिधान सिद्धान्त आदृत हुआ। आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत इस सहज विचार के विपरीत है-प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् । गीतगोविन्द में रसिकसर्वस्व का कहना है-संस्कृतात् प्राकृतमिष्टं ततोऽपभ्रंशभाषणम् । इसके विपरीत भी कुछ का अभिमत है-प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम् । ततश्च वैय्याकरणैः साधितं हि संस्कृतमित्यभिधीयते । अतो न संस्कृतमूलकं प्राकृतम् प्रत्युत प्राकृतमूलकमेव संस्कृतम् । वस्तुत: आचार्यों के यह अभिमत उस समय के हैं जब प्राकृत बोली भी व्याकरण के नियमों में बंध कर एक निश्चित रूप लेकर भाषा की श्रेणी में स्थापित हो चुकी थी । हम प्राकृत के उस स्वरूप की बात कर रहे हैं जब प्राकृत अपने आदिकाल में भाषा न होकर जन सामान्य की बोली रही और प्रयोक्ताओं के वैविध्य के कारण शब्दों के रूपो में भी विविधता आई जो स्वाभाविक थी । इसी समय पठन-पाठन की सुविधा से सम्पन्न भद्र समाज का व्यवहार, भाषा अर्थात् बोली के परिष्कृत रूप में होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना जनसामान्य में बोली का प्रचलन । इस स्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा और बोली दोनों का व्यवहार में प्रयोग समकालिक है तथा यह प्रश्न कि प्राकृत और संस्कृत में किससे किसका विकास हुआ निरर्थक है । वस्तुत: समाज में प्राकृत तथा संस्कृत दोनों ही समानान्तर चलती रहीं। यह स्थिति सदा ही बनी रहती है आज भी संसार के किसी भाग में किसी भाषा को देखें तो आप को भाषा के परिष्कृत तथा अपरिष्कृत दोनों ही स्वरूप देखने को मिलेंगे। भाषा के यह दोनों ही रूप अन्योन्याश्रित होकर परस्पर प्रभावित करते हुए प्रवृत्त होते हैं । समकालिन होने से इनमें पौर्वापर्य नहीं होता और इसलिये कार्यकारण भाव को यहां खोजना भी अप्रासंगिक है। संस्कृत भाषा का आदि रूप हमें संहिताओं में देखने को मिलता है । स्वरूप-भेद के आधिक्य के कारण ही संस्कृत के वैदिक और लौकिक दो भेद किये जाते हैं । आचार्य पाणिनि ने भी लौकिक संस्कृत को पूर्णतः नियमित किया परन्तु वैदिक को सूत्रों में बहुत कम छुआ और बहुलं तथा व्यत्यय शब्दों का सहारा लिया । वैदिक संस्कृत में विभक्ति तथा वचन में रूप की समानता है । उदाहरण के लिये पालि में सब शब्दों में तृतीया, पंचमी के बहुवचन तथा चतुर्थी, षष्ठी विभक्तियों के रूप समान होते हैं । बुद्ध, धन, गुणवन्त, गच्छन्त आदि अकारान्त और चतुर्थी षष्ठी के बहुवचन, व्याधि, केतु, पितु आदि पुल्लिंग शब्दों में तृतीया, पंचमी विभक्तियों के एकवचन, मेधा, मति, नदी आदि स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी विभक्तियों के एकवचन समान होते हैं । पालि में

Loading...

Page Navigation
1 ... 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212