Book Title: Sambodhi 2010 Vol 33
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 126
________________ 120 जयपाल विद्यालंकार SAMBODHI एकवचन और बहुवचन ही होता है अतः द्विवचन, बहुवचन के रूप समान ही होंगे । संस्कृत की दृष्टि से इसे व्यत्यय कहा जा सकता है जो वस्तुतः है नहीं । वैदिक संस्कृत की इस समानता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोनों भाषाएं (भाषा और बोली) तत्कालीन समाज में (संहिता काल) में प्रचलित थीं। एक गंभीर चिन्तन में रमे हुए वर्ग की भाषा थी और दूसरी सामान्यजनों के व्यवहार की भाषा थी। दोनों परस्पर अन्योन्य को प्रभावित करते हुए पनपती रहीं । इनके परस्पर संबन्ध को जन्यजनक संबन्ध कहना बहुत समीचीन प्रतीत नहीं होता। कालान्तर में संस्कृत की तरह समाज में प्रतिष्ठित करने के लिये प्राकृत को भी व्याकरण के नियमों में बांध कर व्यवस्थित किया गया । आचार्य पाणिनि की सूत्र शैली में वररुचि ने बारह परिच्छेदों में सूत्रों की रचना की जिनपर अलंकार शास्त्र के प्रथम आचार्य भामह ने वृत्ति लिखी और प्राकृत भाषा के प्रथम व्याकरण प्राकृतप्रकाश की रचना हुई । भामह का काल छठी शताब्दी प्राय: तय है परन्तु वररुचि कौन थे कब हुए यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता । अष्टाध्यायी के प्रणेता सूत्रकार आचार्य पाणिनि (पाँचवीं शती ई.पू.), वार्तिककार कात्यायन (तीसरी शती ई.पू.) तथा भाष्यकार पतञ्जलि (प्रथम शती ई.) व्याकरण के त्रिमुनि सर्वविदित हैं । कुछ विद्वान वररुचि और कात्यायन एक ही व्यक्ति को मानते हैं । कात्यायन वाजसनेयी प्रातिशाख्य के रचियता भी हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वररुचि व्यक्तिनाम तथा कात्यायन परिवार-नाम है । भाष्यकारने वार्तिककार कात्यायन का चार बार उल्लेख किया है । परन्तु वार्तिककार या सूत्रकार के रूप में वररुचि का एक बार भी उल्लेख नहीं किया है । पतंजलि एक कवि वररुचि को जानते हैं जिसका उल्लेख वाररुचं काव्यम् (तेन प्रोक्तम् इत्यत्र म.भा. ४.३.१०१) के रूप में हुआ है । परन्तु यह वररुचि कोई कवि है वार्तिककार कात्यायन नहीं है । प्राकृत व्याकरण के सूत्र-रचियता वररुचि निश्चित रूप से भाष्यकार के बाद और भामह से पहले रहे होंगे । सर्ववर्मन् के कातन्त्र व्याकरण, जो पाणिनि व्याकरण का संक्षिप्त और पुनर्व्यवस्थापित व्याकरण है, का अन्तिम चतुर्थ अध्याय भी वररुचि का बनाया हुआ है । यह वह समय होना चाहिये जब दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त संस्कृत के शुद्ध प्रयोग के लिये एक संक्षिप्त कामचलाऊ व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी थी। प्राकृत में श्रमण साहित्य और कथा साहित्य की रचना संस्कृत से अधिक व्यापक हो रही थी। सातवाहन राजा हाल ने प्रथम शती में महाराष्ट्री प्राकृत में गाथा सप्तशती का संग्रह किया । दृश्यकाव्यों का प्रयोग, जिसमें प्राकृत का उपयोग संस्कृत से अधिक होता था, मनोरंजन का प्रबल साधन हो गया था । इस समय प्राकृत. बोली के स्वरूप को छोड़ कर भाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो रही थी । इस काल का आरम्भ प्रथम शती से होकर निरन्तर बढता गया । तर्कसंगत यही प्रतीत होता है कि इसी काल में वररुचि ने प्राकृत के प्रथम व्याकरण की रचना पाणिनि की अष्टाध्यायी की शैली में की । भामह ने वृत्ति छटी शती में लिखी इससे अनुमान किया जा सकता है कि भामह से कुछ सौ-दोसौ वर्ष पहले ही सूत्रों की रचना हुई होगी। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है-कोस कोस पर बदले पानी, तीन कोस पर वाणी । जीवित भाषा जिसे व्याकरण के नियमों में जकड़ न दिया गया हो लोक-व्यवहार की विविधता के कारण कदम कदम पर बदल जाती है । इस बदलाव का आधार उच्चारण-भेद तथा सुविधानुसार वर्ण लोप, आगम, व्यत्यय

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