________________
Vol. XXXIII, 2010
जयपुर नरेशों का संगीत प्रेम
125
स्वयं ही कहते हैं और अपने निर्माता, सरंक्षक तथा पोषक शासकों की कलात्मक अभिरुचि तथा संस्कृति प्रेम का गौरव गान करते हैं ।
प्राचीन काल से ही भारतीय शासक कला व संस्कृति प्रेमी रहे हैं। भारतीय संस्कृति के पक्षधर भारतीय राजाओ को प्राचीन काल से इस स्वसंस्कृति प्रेम ने ही कला संरक्षण के लिये प्रेरित किया । इनकी दृष्टि में कला सृजन एवं कला संरक्षण के समान ही पुनीत एवं महत्त्वपूर्ण कार्य रहा । भारत में सदैव कलाकार न उसकी कला को उसके गुणों के आधार पर पहचान दी गई और उसे समाज में
च्च स्थान प्राप्त होता रहा । इसका कारण यही कला प्रेम तथा कला संरक्षण था । राजाओं का अनुकरण समाज का उच्च वर्ग तथा अधिकारी वर्ग सहज ही करते थे। उनके द्वारा भी कलाकार को संरक्षण मिलता था और उसकी कला साधना को आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध होती थी ।
जयपुर राज्य में भी इस परम्परा का निर्वाह प्रारम्भ से ही हुआ । जयपुर राज्य के समस्त शासक प्रेमी रहे। जिससे यहा का वातावरण कलाकारों के लिये सदैव अनुकूल बना रहा । प्रत्येक राजा के शासन काल की नवीन कला परम्परा तथा कलाकारों का निर्वाह आगे आने वाले शासक करते थे । ललित कलाओं को कछवाहा वंशजों ने सदा ही पर्याप्त संरक्षण व प्रोत्साहन प्रदान किया । इनके साथ-साथ जीवन के प्रत्येक पक्ष के साथ जुड़े कौशल, ज्ञान, अन्वेषण, आविष्कार आदि अन्य पक्षों पर भी समुचित ध्यान दिया । संभवत: इसी कारण जयपर की सांस्कतिक धरोहर भारतीय संस्कृति की अमर परिचायक है।
आज जयपुर विश्व में अपने सांगीतिक वैभव तथा समुद्ध कला परम्परा के लिये सुप्रसिद्ध है। संगीत जगत में जयपुर घराना अपना विशिष्ट स्थान रखता है । जयपुर शैली के चित्र राजस्थानी चित्र कला परम्परा के सर्वोत्कृष्ट मात्र कुछेक कलाप्रिय संरक्षको तथा कलाकारों के योगदान का परिणाम थी। इस नगर में सदा से ही संरक्षण प्राप्त करती आई इस कलात्मक स्वरूपा परम्परा का इतिहास हमें ११वीं शताब्दी का द्वार दिखाता है जब नरवर के निवासी, कछवाहावंशी काकिल देव ने अपना छोटा सा राज्य स्थापित कर 'आम्बेर' को अपनी राजधानी बनाया ।
जैसी सामन्ती युग में उन दिनों परम्परा थी, दरबार में श्रेष्ठ कलाविद् तत्कालीन समाज में राजा के राजसी वैभव को और अधिक बढ़ाते थे । उसके अनुसार प्रत्येक राजा, सामंत अथवा जागीरदार के यहाँ कलावंत आश्रय प्राप्त करते थे और अनेक कलाकार, शिल्पकार, चारण, कवि, संगीतज्ञ दरबार में समय तथा अवसरानुकूल अपनी कला के प्रदर्शन हेतु रखे जाते थे । चित्रकार महत्त्वपूर्ण घटनाओं को चित्रित करते थे तथा राजाओं एवं राजघराने के व्यक्तियों के व्यक्ति चित्र बनाते थे । राजा और उनके वंशजो का ऐतिहासिक क्रम बद्ध रूप में चारण गुण गान करते थे । राजगायकों का धर्म था-राजा और राजपरिवार का मनोरंजन और शिल्पकारों का कार्य था-हस्तशिल्प की सुन्दर कलात्मक वस्तुओं का सृजन करना, जो राजघराने के दैनिक उपयोग अथवा सजावट हेतु होती थी।
११वीं शताव्दी में आम्बेर मे अपना कछवाहा राज्य की सुस्थापना करने के पश्चात् आमेर के प्रथम शासक ने भी तत्कालीन राजघरानों की परिपाटी के अनुसार अपने दरबार में भी कलाकारों को आश्रय दिया होगा। क्योंकि रजवाड़ों के युग में राजा का अपने दरबार में कलाकारों, कलाकारो तथा विद्वद्जनों