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रमानाथ पाण्डेय
SAMBODHI
दिखाने में स्वतन्त्र हैं तथापि वे उन्हीं पर दया दिखाते हैं जो भक्ति तथा पुण्य कर्म द्वारा उसके योग्य हैं। भगवान के सच्चे स्वरूप की अनभति तथा हमारा उसके साथ सम्बन्ध हो जाने की स्थिति में तीनों प्रकार के कर्म संचित, क्रियमाण एवं प्रारब्ध का प्रणाश हो जाता है ।
कर्म का प्रयोजन - द्वैताद्वैत मतानुसार शास्त्र में विहित कर्मकाण्ड के ग्रन्थों के अध्ययन से ब्रह्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है क्योंकि उनमें कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले अनेक प्रकार के पुण्यफलों की प्राप्ति की चर्चा है तथा उनसे यह अनुभव होता है कि वे सभी फलभोग से दूषित हैं, अत: नित्यानन्द की वे प्राप्ति नहीं करा सकते । वैदिक धर्म का अध्ययन एवं उनकी कार्यक्षमता, ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न करता है जिससे नित्यानन्द की प्राप्ति होती है। ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' की व्याख्या में आचार्य निम्बार्क ने स्पष्ट करते हुये कहा है कि वेद एवं वेदांगों के अध्ययन करने पर यह शंका उत्पन्न होती है कि कर्मफल नाशवान है अथवा अनाशवान ? तत्पश्चात् धर्म की जिज्ञासा तथा व्याख्या करने वाले मीमांसाशास्त्र के अध्ययन से कर्मफल का निश्चय होता है कि कर्मफल निश्चित समय में समाप्त होने वाला और नाशवान है, एवं ब्रह्मानन्द का फल अनन्त है। कर्मफल नाशवान है यह ज्ञात हो जाने पर कर्म के प्रति अनास्था उत्पन्न होती है । इस प्रकार कर्म से अनासक्त हो मोक्ष की कामना से पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के जानने की निरन्तर जिज्ञासा उत्पन्न होती है जिसके लिये व्यक्ति प्रयत्नशील होता है । कर्मादि को जिज्ञासा का विषय नहीं माना जा सकता है । ब्रह्म तो संकल्प मात्र से ही कार्य करता है, उसे क्रिया की अपेक्षा नहीं होती है। ब्रह्म तो सभी का कर्ता, नियामक, स्वतन्त्र एवं फल दाता है । अतः कर्म का समन्वय भी ब्रह्म में ही होगा । यज्ञ, तप आदि कर्मों के अनुष्ठान से ज्ञान की उत्पत्ति होती है तथा यज्ञादि कर्मों के सम्पादन से उस ब्रह्म के जानने की विविदिषा होती है । इस प्रकार स्पष्ट है कि समस्त क्रियायें ब्रह्म की प्राप्ति के लिये ही की जाती हैं । इस प्रकार द्वैताद्वैत मतानुसार कर्म का प्रयोजन ब्रह्म-जिज्ञासा उत्पन्न करने में है जिसके माध्यम से मुक्ति की योग्यता उत्पन्न होती है । अतः यह कहा जा सकता है कि इस दृष्टि से द्वैताद्वैत दर्शन के अनुसार भी समस्त कर्मों के पालन का लक्ष्य मुक्ति पाना ही है । वस्तुतः यहाँ कर्म से तात्पर्य ही है भक्तियुक्त कर्म से जो ब्रह्मज्ञान प्राप्ति का साधन माना गया है ।
कर्म का स्वरूप - निम्बार्क ने 'जगद्वाचित्वात्' (ब्रह्मसूत्र १.४.१६) की व्याख्या में कर्म शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुये कहा है कि 'क्रियते यत्तत् कर्मेति कर्म शब्दस्य जगत्वाचित्वात्' अर्थात् 'जो किया जाये वह कर्म है' कर्म शब्द की इस व्याख्या के अनुसार कर्म का अर्थ होगा जगत् या सृष्टि । इस प्रकार कर्म शब्द जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत का वाचक है । जीव व जगत स्वतः निर्भर नहीं हैं बल्कि वे ईश्वर द्वारा संचालित हैं । प्रलयकाल में ये दोनों ईश्वर के स्वभाव में मिल जाते हैं । ईश्वर इन दोनों के मूल रूप को उस समय अपने में रखता है। ब्रह्म की शक्ति द्वारा ही जगत् की सृष्टि होती है, असंख्यों जीव अपने कर्मानुसार पृथक् पृथक् शरीर प्राप्त करते हैं । ईश्वर को जगत् की रचना के लिये किन्हीं उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती वह अपनी संकल्पात्मिका शक्ति से ही सृष्टि करता है । जगत् तथा ब्रह्म में कोई विशेष अन्तर नहीं है, जगत् की क्रियाशीलता ब्रह्म पर ही आश्रित है, तथापि