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Vol. XXXIII, 2010
जैनधर्म और श्रुतदेवी सरस्वती
जहाँ तक अचेल दिगम्बर परम्परा का प्रश्न हैं, उसमें भी श्रुतदेवी सरस्वती के उल्लेख पर्याप्त परवर्ती हैं । कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती-आराधना, तिलोयपज्जती, द्वादश-अनुप्रेक्षा (बारस्साणवेक्खा) एवं कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार. नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि में हमें कहीं भी आद्यमंगलम में श्रुतदेवता सरस्वती का उल्लेख नहीं मिला है । यहाँ तक कि तत्वार्थ की टीकाओं जैसे सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक में तथा षट्खण्डागम की धवलाटीका और महाबंध टीका में मंगल रूप में श्रुतदेवी सरस्वती का उल्लेख नहीं है। महाबन्ध और उसकी टीका में मंगल रूप में जिन ४४ लब्धिपदों का उल्लेख है-उनमें भी कहीं सरस्वती या श्रुतदेवता का नाम नहीं है । ज्ञातव्य है ये ही लब्धिपद, श्वेताम्बर परम्परा में सूरिमंत्र के रूप में तथा प्रश्नव्याकरण नामक अंग आगम में भी उपलब्ध है । जिनमें अनेक प्रकार के लब्धिधरो एवं प्रज्ञाश्रमणों के उल्लेख हैं, किन्तु उनमें भी श्रुतदेवी सरस्वती का कोई उल्लेख नहीं है । विद्वत्वर्ग के लिए यह विचारणीय और शोध का विषय है ।
जहाँ तक मेरी जानकारी है, दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम पं. आशाघर (१३ वीं शती) ने अपने ग्रन्थ सागारधर्मामृत में श्रुतदेवता की पूजा को जिनपूजा के समतुल्य बताया है । वे लिखते हैं -
ये यजन्ते श्रुतं भक्तया ते यजन्तेऽजसा जिनं ।
तं किंचिदंतरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो ॥ २/४४ मेरी जहाँ तक जानकारी है, दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द प्रणीत मानी जाने वाली दस भक्तियों में श्रुतभक्ति तो है, किन्तु वह श्रुतदेवी सरस्वती की भक्ति है, यह नहीं माना जा सकता है । 'श्रुत देवयोः' यह पद भी सर्वप्रथम सागर धर्मामृत में ही प्राप्त हो रहा है । मेरी दृष्टि में आचार्य मल्लिषेण विरचित 'सरस्वती मन्त्रकल्प' उस परम्परा में सरस्वती उपासना का प्रथम ग्रन्थ है और यह ग्रन्थ बारहवीं शती के पश्चात् का ही है ।
जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है, मेरी जानकारी में उसमें सर्वप्रथम 'सरस्वतीकल्प' की रचना आचाय बप्पभट्टीसूरि (लगभग १० वीं शती) ने की है । यह कल्प विस्तार से सरस्वती की उपासना विधि तथा तत्सम्बंधी मंत्रों को प्रस्तुत करता है । आचार्य बप्पभट्टीसूरि का काल लगभग १० वीं शती माना जाता है । श्वेताम्बर परम्परा में सरस्वती का एक अन्य स्तोत्र साध्वी शिवार्या का मिलता है इसका नाम 'पठितसिद्ध सारस्वतस्तव' है। साध्वी शिवार्या का काल क्या है ? यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है । इसके पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में जिनप्रभसूरि (लगभग १३ वीं-१४ वीं शती) का श्री शारदास्तवन मिलता है, यह आकार में संक्षिप्त है, इसमें मात्र ९ श्लोक हैं । इसके अतिरिक्त एक अन्य श्री सरस्वती स्तोत्र उपलब्ध होता है, इसमें मात्र १७ श्लोक हैं । इसके कर्ता भी अज्ञात हैं। इनमें बप्पभट्टीसूरि का सरस्वती कल्प ही ऐसा है, जिसमें सरस्वती उपासना की समग्र पद्धति दी गई है । यद्यपि यह पद्धति वैदिक परम्परा से पूर्णतः प्रभावित प्रतीत होती है । इस लेख में उल्लेखित सभी स्तोत्र हमने क्रमशः परिशिष्ट में दिये, हैं ।
जहाँ तक सरस्वती के प्रतिमा लक्षणों का प्रश्न है । सर्वप्रथम खरतरगच्छ के वर्धमानसूरि (१४