Book Title: Sambodhi 1994 Vol 19
Author(s): Jitendra B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 42
________________ SAMBODHI JAGRUTI S. PANDYA K.P.D. Ullasa IX p. 133 on K.P. IX.85 : 33. अत्र श्लेषसाम्यनिर्वाहकता न तु साम्यरस तन्निर्वाहकतेधुपमाया एवाङ्गित्वेन व्यपदेशो भवितुं युक्तः। प्रधानेन व्यपदेशा भवन्तीत्युक्तनयात् । Compare the Vrtti on S.D. X-12, p.496 : अत्र श्वेषस्यैव साम्यनिर्वाहकता, न तुं साम्यस्य श्लेषनिर्वाहकता । श्लेषबन्धतः प्रथम, साम्यस्यासंभवात् । इत्युपमाया एवाङ्गित्वेन व्यपदेशो ज्यायान् 'प्रधानेन हि व्यपदेशा भवन्ति' इति न्यायात् । The S.D. has a clearer expression, तेधुपमाया in K.P.D. is a misprint and it should read as 0 तेत्युपमाया . 34. K.P.D. Ullāsa - IX p. 134 on K.P. IX - 85 : न च तत्र तुल्ययोगिता तस्यां द्वयोरर्थयोर्वाच्यत्वनियमाभावादिति विज्ञेयम् मम साहित्यदर्पणात् । See the Vștti on S.D. X.12, p. 494 : न चात्र तुल्ययोगिता, तस्याश्च द्वयोरप्यर्थयोर्वाच्यत्वनियमाभावात् । S.D. is mentioned here clearly by name. 35. K.P.D. Ullasa IX - p.138 on K.P. IX-86 : भुजंगकुण्डलीव्यक्त शशीशुभ्रांशुशीतगः । जगन्त्यपि सदापाय देव्याच्छेतो (?) हर: शिरः।। इत्यत्र भुजंगकुण्डलीत्यत्र प्रथमस्यैव परिवृत्तिसहत्वं हर: शिरः इति द्वितीयस्य, शशिशुंभ्रांश्वित्यत्र द्वयोरपि अतिसादनत्याग इत्यत्र द्वयोरपिति शुद्धद्वयपरिवृत्तिसहत्वासहत्वाभ्यामस्यो भयालंकारत्वमुक्तम्। See the Vrtti on S.D. X.2, p.473 : भुजङगकुण्डली व्यक्तशशिशुभ्राशुशीतगुः । जगन्त्यपि सदापायादव्याच्चेतोहरः शिवः ।। अत्र....' भुजङगकुण्डली ' इति शब्दयोः प्रथमस्यैव परिवृत्तिसहत्वम् । 'हर: शिवः' द्वितीयस्यैव ।

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