Book Title: Sambodhi 1994 Vol 19
Author(s): Jitendra B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 100
________________ भारती सत्यपाल भगत SAMBODHI लेकिन सायण के भाष्य में जो एक तीसरा आदित्यपरक अर्थघटन है वह अतीव ध्यानास्पद है। क्योंकि वह निर्विवादरूप से नैरुक्त परंपरा का ही अर्थघटन है। अर्थात् जो अर्थघटन यास्क की कलम से नीकलना चाहिए, वह सायण के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। (यद्यपि सायण ने उसे नेरुक्त अर्थघटन नहीं कहा है।) ___ दूसरा सायणने जो इस “चत्वारि शृङ्गा".... का आदित्यपरक अर्थघटन देते हुए, अपने समर्थन में एक ब्राह्मणवचन भी उदधृत (तै० ब्रा०३-१२-९-१) किया है, वह “वेद को ब्राह्मणवचन के आधार पर समझने" का प्रयास है। (घ) यास्क से शुरू करके वेङ्कटादि भाष्यकार और पूर्वमीमांसा में जो इस मन्त्र का याज्ञिक अर्थघटन निरूपित होता गया है, उसमें तत्कालिन यज्ञ का क्रियाकाण्ड जैसे जैसे विकसित होता गया होगा वैसे वैसे उस उस अर्थघटन में छोटे छोटे परिवर्तन होते रहे है।अस्तु।। पाटीप: १. तत्को वृत्रः। मेघ इति नैरुक्ताः। त्वाष्ट्रोऽसुर इत्यैतिहासिका:....|निरुक्त २/१६. २. न होषु प्रत्यक्षमस्ति अनुषेरतपसो वा। निरुक्त. ३. अयं मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहोऽपि श्रुतितोऽपि तर्कत:। निरुक्त १३/१२. ४. न तु पृथक्त्वेन मन्त्रा निर्वक्तव्या: प्रकरणश एव निर्वक्तव्या: । निरुक्त. ५. चत्वारि शृंगेति वेदा वा एता उक्ताः। त्रयोऽस्य पादा इति सवनानि त्रीणि। वे शीर्षे प्रायणीयोदनीये। सप्त हस्तास: सप्त छन्दांसि। त्रिधा बद्धस्त्रेधा बद्धो मन्त्रब्राह्मणकल्पैः। वृषभो रोरवीति। रोरवणमस्य सवनक्रमेण ऋग्भिर्यजुभि: सामभिर्यदेनमृम्भि: शंसन्ति यजुर्भिर्यजन्ति सामभि: स्तुवन्ति । महो देव इत्येष हि महान्देवो यद्यज्ञो मल् आविवेशेति। एष हि मनुष्यानाविशति यजनाय। तस्योत्तम्भूस्भूयसे निर्वचनायं। निरुक्त १३/७. ६. तस्य गौरस्य चत्वारि श्रृङ्गाणि भवन्ति, त्रय: च पादाः, द्वे च शीर्षे, सप्त हस्तास: अस्य। स चायम् त्रिधा बद्धः वृषभः शब्दं करोति। सोऽयं महान् देव: मनुष्यान् आ विवेश इति। अत्रार्थवणिकम् “चत्वारि शृङ्गा इति वेदा एवैत उक्ताः। त्रयो अस्य पादा इति सवनान्येव द्वे शीर्षे इति ब्रह्मौदनप्रवर्या एव। सप्त हस्तासो अस्येति छन्दांस्येव। त्रिधा बद्ध इति मन्त्र: कल्पो ब्राह्मणम्। वृषभो रोरवीत्येष एवै वृषभ एव तद्रोरवीति यद्यज्ञे शस्त्राणि शंसन्ति ऋभिर्यजुर्भि: सामभिब्रह्मभिरिति। महो देवो मां आ विवेशेत्येष एव वै महान् देवो यद्यज्ञो मानाविवेश इति" (तुल्य० १३,७) ॥३॥४/५८/३ वेङ्कटमाधव. ७. सायण ने निरुक्त का जो उद्धरण दिया है वह निरुक्त के १३ वाँ अध्याय का है, जो प्रसिद्ध माना गया है। ८. यद्यपि सूक्तस्याग्निसूर्यादिपञ्चेदेवताकत्वात् पञ्चधायं मन्त्रो व्याख्येयस्तथापि निरुक्तायुक्तनीत्या यज्ञात्मकाग्ने: सूर्यस्य च प्रकाशकत्वेन तत्परतया व्याख्यायते। अस्य यज्ञात्मकस्याग्ने: चत्वारिश्रृङ्गा चत्वारो वेदा: शृङ्गस्थानीया: । यद्यप्यापस्तम्बेन "यज्ञं व्याख्यास्याम: स त्रिभिवेंदेविधीयते (परिभा० १.३) इत्युक्तं तथाप्याथर्वणस्य चत्वारि श्रृजेत्युक्तम्। त्रयो अस्य पादा: सवनानि त्रीण्यस्य पादाः । प्रवृत्ति साधनत्वात् पादा इत्युच्यन्ते। वे शीर्षे ब्रह्मौदनं प्रवर्गाश्च। इष्टिसोमप्रधान्येनेदमुक्तम्। सप्त हस्तास: सप्त छन्दांसि। हस्ता: अनुष्ठानस्य मुख्यसाधनम् । छन्दास्यपि देवताप्रीणनस्य मुख्यसाधनमीति हस्तव्यवहारः। त्रिधा बद्धः मन्त्रब्राह्मणकल्पै: त्रिप्रकारं बद्धः । बन्धनमस्य तनिष्पाद्यत्वम्। वृषभ: फलानां वर्षिता रोरवीति । भृशं शब्दायते। ऋग्यजुःसामोक्थैः शस्त्रयागस्तुतिरूपैर्होत्राद्युत्पादितैर्ध्वनिभिरसौ रौति। एवं महो देवः मान् आ विवश।

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