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जैन साहित्य में वर्णित विजयार्द्ध पर्वत का अभिज्ञान*
डा. लक्ष्मीशंकर निगम
जैन साहित्य में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र का उल्लेख मिलता है । जम्बूद्वीप का विस्तार लगभग सभी ग्रंथों में एक लाख योजन उल्लिखित है। भरत क्षेत्र इसका १९० भाग माना गया है । इस प्रकार भरत क्षेत्र का विस्तार ५२६६८ योजन स्वीकार किया गया है । जहां तक इन ग्रंथों में विस्तार का उल्लेख है, ब्राह्मण पुराणों के सहश्य यहाँ मी विवरण काल्पनिक प्रतीत होते हैं किन्तु भौगोलिक स्थिति विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर इससे प्रकाश पड़ता है । प्रस्तुत लेख में जैन ग्रंथों में वर्णित भरत क्षेत्रान्तर्गत विजयार्द्ध नामक पर्वत के अभिज्ञान पर विचार किया गया है।
विजयार्द्ध पर्वत का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह पर्वत भरत क्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित है । तिलेायपण्णत्ती में इस पर्वत के दोनों पूर्वा को समुद्र का स्पर्श करने वाला कहा गया है । इस पर्वत के दोनों भाग पूर्व और पश्चिम समुद्र के प्राप्त है | 3 इस पर्वत में पृथ्वी से दस योजन ऊपर चलकर दक्षिणी श्रेणी में पचास और उत्तरी श्रेणी में साठ, कुल एक सौ दस, विद्याधरों की नगरियाँ स्थित हैं । बवनाल, वल्ल, तूवर, तिल, जौ, गेहूँ और उडद आदि उत्तम धान्यों से युक्त भूमि द्वारा वे नगर शोभा प्राप्त करते हैं । विद्याधरों के ऊपर, अभियोग्य देवों के पुर हैं तथा उससे पाँच योजन ऊपर दस योजन विस्तारवाला वैताढ्य पर्वत का उत्तम शिखर है । ४
भरत क्षेत्र के जम्बूद्वीप के दक्षिण में स्वीकार किया गया है तथा इसका तादात्म्य वर्तमान भारतवर्ष से किया जाता है। भरत क्षेत्र के मध्य क्षेत्र में कोई भी ऐसा पर्वत स्पष्ट दिखाई नहीं देता, जिसकी सीमाएँ पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र के स्पर्श करती हों। वहाँ तक मात्र मध्य भाग में स्थित होने का प्रश्न है, वर्तमान बिन्ध्याचल अपनी पर्वत श्रेणियों सहित भारतवर्ष के मध्य भाग में स्थित है। पौराणिक एवं पुरातात्त्विक विवरणों के आधार पर जैन ग्रंथों में उल्लिखित विजयार्द्ध पर्वत का अभिज्ञान इस पर्वत से किया जा सकता है। ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य में विन्ध्य पर्वत से सम्बन्धित विस्तृत विवरण उपलब्ध है । ब्राह्मण पुराणों में इसे सप्त कुलपर्वतों में से एक माना गया है। महावंश तथा दीपवंश में कहा गया है कि अशोक विञ्झावटी (विन्ध्यावटी) के पार करने के पश्चात् ताम्रलिप्ति पहुँचे थे । समन्तपासादिका" में इसे " अगामकं भरञ्ज” अर्थात् ग्रामविहिन अरण्य कहा गया है ।
इस प्रकार ब्राह्मण और बौद्ध साहित्य में बहुलता से वर्णित विन्ध्यपर्वत का कुछ अपवादों की छोड़कर जैन साहित्य में कम उल्लेख मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैन साहित्य संमोधि वो १२-७