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देशात् लिखा पितोयं प्रज्ञापनाग्रन्थः । लिखितश्च कायस्थ भगवानदासेन । शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ।। अधचूरि की प्रशस्ति -
श्रीमलयगिरिकृतायाः प्रज्ञापनावृत्तितोऽवचूरिरियं । श्रीपद्मसुन्दरेण व्यरचि यथार्था सुसक्षिप्य ॥ १ ।।
समाप्ता श्रीश्यामाचार्यकृतप्रज्ञापनोपाङ्गाऽवचूरिरिति ।। ग्रन्यान' ५५५५ ।। लिखितं कायस्थ माथुरमेवरिया दयालदासात्मजभगवान दास (दासेन) ॥
यदुसुन्दरमहाकाव्य इस प्रति का क्रमांक श्री पुण्यविजयी महाराज संग्रह, ला० द० विद्यामन्दिर, महमदावाद में उपस्थित २८५८ है। प्रति का लेखन समय १८वीं शती का उत्तराध है। इस प्रति का परिमाण २७४११.१ से. मी० है । प्रति के कुल पन ५३ हैं । प्रत्येक पत्र में पंक्तियां की सख्या १३ से १५ तक है तथा प्रत्येक पक्ति में ४० से ४४ तक के अक्षर हैं। पृष्ठ ३३ की दो बार आवृत्ति हुई है। प्रति की दशा ठीक है।
इसका विषय महाकाव्य है । जैना के बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ के जीवन चरित्र पर यह महाकाव्य लिखा गया है । प्रथम सर्ग में ४९ श्लोक, २ : ८५, ३ : २०१५ ४: ९६, ५: ६४, ६ : ७३, ७ : ८८, ८ : ७१, ९: ७६, १० : ७१, ११ : ७८, १२: ८९, इस प्रकार कुल श्लोक संख्या १०६१ है। प्रति की दशा अच्छी है ।
आदि - श्री जिनाय नमः ।।
विनिद्रचन्द्रातपचारुभूर्भुवःस्वरीशमाईन्त्यमनाद्यनश्वर । स्वचुम्बिसंविघृणिपुञ्जमज्जरीपरीतचिद्रूपमुपास्महे महः ॥१॥
अन्त
आनन्दोदयपर्वतै कतरणेरान दमेरोणुरो: शिष्यः पण्डितमीलिमण्डनमणिः श्रीपद्ममेरुर्गुरुः । तच्छिष्योत्तमपद्मसंदरकविः संदृब्धवांस्तन्महा
काव्यं श्रीयदुसुंदर सहृदयान'दाय कंदायताम् ।। ८९ ।। इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुविनेय ५०श्रीपद्मसुंदरविरचिते यसुंदरनाम्नि महाकाव्ये सन्ध्योपश्लोकमंगलशंसनो नाम द्वादशः सर्गः ।। १२ ॥
समाप्प चेदं यदुसुन्दरनाम महाकाव्यम् ।।