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तेवनारायण मिश्र
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भागो में परवर्ती मुगल शैली की चित्रकला जीवित थी और कुछ कलाकार दोनो शैलियो । काम कर रहे थे । अथवा हम यो भो कह सकते हैं कि फला फार दोनों शैलियों के मनोरम व हुदयमाही तलो को एक दूसरे में आवश्यकता के अनुरूप ग्रहण करने में हिचकिचाते नही ये । इसी कारण से करानी शैली की चित्रकला में केन्द्रों के अनुसार भिन्नता होते हुये भी प्रान्तीय व स्थानीय शैलियो का भी दर्शन होता हैं । अछारहवों से उन्नीसवी शताब्दो का समय इस दौली का रहा ।
सन १८११ ईस्वी में फेनी पाक नामक एक विदेशी महिला ने बनारस के कारों द्वारा अभ्रक (माइका पर तैयार किये गये कुछेक चित्रों को खरीदा, इन चित्रों के अन्दर की कलात्मक अभिव्यक्ति को देखकर वह बहुत प्रभावित हुयी, चित्रों में गोली समायोजना, द्रष्टम छाया-प्रकाश परिपेक्ष्य की अभिव्यक्ति और कलाकारों द्वारा चित्रकला की तकनीकी विशेषताओं को दक्षता के साथ दर्शाता उनकी चित्रकला में पूर्णता को चला रहे थे इसके परिणामस्वरुप इन विदेशी लोगों को अपने पूर्वाग्रह को छोड़कर यह कहने को मजबर होना पड़ा कि बनारस में बने चित्र भारत के अन्य केन्द्रों में निर्मित निरी अधिक सुन्दर हैं।
श्रीमती आचर के कथनानुसार अग्रेजों के बनारस में आने से पहले यहाँ पर होने चित्रकला का स्कूट या शैली प्रतिस्थापित नहीं थी और न कोई चित्रकला की स्वतंत्र विद्या बाली कला ही प्रचलित थी। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेजो ने ही बनारस में चित्रकला के स्कूल की स्थापना की और उन्हीं के द्वारा लाई हुयी विद्या से बनारस में चित्रकला की शुरुवान हुयी 15 जबकि बनारस की राजनीति में अंग्रेजो की घुसपैठ सन १७८१ ई. के लगभग शुरु हुयो ।
रायकृष्णदास ने अपने एक लेख में यह बतलाया है कि बनारस में कोई न कोई परम्परागत चित्रशैली अवश्य रही जो राजस्थानी चित्रशैली के समकक्ष थी । इसी बात के एक अन्य विद्वान ने भी दुहराया है और कहा कि सन् १८२२ ई. के लगभग तुलसीकृत सचित्र रामायण का निर्माण आठ वृहद् खण्डों में राजा उदित नारायणरिह के समय।
आ था। यही नहीं १७३५ ईस्वी में निर्मित 'मीर रुस्तम अली की होली वाला चित्र बनारस की कलाधारा एवं चित्रकला के परम्परागत स्कूल का एक जीवन्त उदाहरण है। यद्यपि एक चित्र के आधार पर दृढता पूर्वक यह कहना कि बनारस में चित्रकला का स्कू था सर्वमान्य तो नहीं हो सकता, किन्तु यह सोचने को जरुर प्रेरित करता है कि बनारस चित्रकला को कोई एक निश्चित परम्परा जरूर थी जिसे यहाँ के कलाकार अपनाये हुये थे
अठारहवीं सदी में मिश्रित मुगल राजस्थानी शैली के चित्रण की परम्परा बनारस में चल रही थी और यहाँ के कुम्हारों एवं नक्काशों के द्वारा इसी मिश्रित प्रविधि वाली बेल बू एवं भित्ति चित्र की परम्परा को सफलता पूर्वक निभाया जा रहा था ।