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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
कितने सौभाग्य, कितने अनुग्रह और कितनी करुणाके साथ पृथ्वीका स्पर्श करते हैं। मन में उन्हीं दोनों चरणों की प्रतिष्ठा करके कविवर शेखर ज्यों ही अवकाश पाते, त्यों ही उस जगह आकर लोट जाते और उन बिछुओंकी झन्कारके सुरमें अपना सुर बाँध देते ।
किन्तु उन्होंने जो छाया देखी, वह किसकी छाया है और किस के बिछुत्रोंकी झन्कार है, इस प्रकारका तर्क और संशय उनके भक्त हृदयमें कभी उठा ही नहीं।
राजकन्याकी दासी मञ्जरो जब घाटपर जाती तब शेखरके घरके आगेसे जाती और आते-जाते समय कविके साथ उसकी दो-चार बातें हुए बिना न रहतीं । बल्कि सुबह-शाम जब कभी सूना पाती वह शेखरके घर भी जा बैठती । हम यह नहीं कह सकते कि वह जितने बार घाटपर जाती, उतने बार जानेकी उसे कोई खास आवश्यकता ही थी और यदि थी भी, तो भी इस बातका पता लगाना तो कठिन ही था कि घाटको जाते समय वह सजधजकर, रंगीन कपड़े पहनकर और कानों में दो आम्र-मुकुल धारण करके क्यों जाती थो! ___ लोग देखकर हँसते और कानाफूसी करते ; परन्तु इसपर उन्हें कोई दोष नहीं दिया जा सकता । मञ्जरीको देखते ही कविराज बहुत प्रसन्न हो उठते और उस प्रसन्नताको छिपानेका वे कोई प्रयत्न भी न करते।
विचारपूर्वक देखा जाय तो साधारण लोगोंके लिए 'मञ्जरी', नाम ही यथेष्ट था , परन्तु शेखर अपने कवित्वका प्रयोग करके उसे 'वसन्तमञ्जरी' कहकर बुलाते और इससे लोगोंका सन्देह और भी बढ़ जाता ।
इसके सिवा कविके वसन्त-वर्णनमें जहाँ तहाँ-'मन्जुल वजुल मञ्जरी' इस तरहके अनुप्रास भी पाये जाते । आखिर यह बात राजाके कानों तक भी पहुंच गई।