Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 13
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८७७ प्राजेन ज्ञातलोकव्यवहृतिमतिना तेन मोहोज्झितेन, प्राग्विज्ञातः सुदेशो द्विजनृपति वणिग्वर्णवर्योङ्पूर्णः। भूभृल्लोकाऽविरुद्धः स्वजनपरिजनोन्मोचितो वीतमोहश्चित्रापस्माररोगाद्यपगत इति च ज्ञातिसंकीर्तनाद्य:॥११॥ आचारसार अर्थात्-लोक व्यवहार को जाननेवाले मोहरहित और बुद्धिमान आचार्यों को जिनदीक्षा देने से पूर्व यह ज्ञात कर लेना चाहिये कि यह सुदेश का है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनप्रकार के द्विजों में से किस एक वर्ण का है अर्थात् शूद्र तो नहीं है पूर्ण अंगी है, राज्य व लोक के विरुद्ध तो नहीं है, कुटुम्बी और परिवार के लोगों से दीक्षा की आज्ञा मांग ली है मोह नष्ट हो गया है, मृगी आदि का रोग तो नहीं है; क्योंकि ऐसा पुरुष ही दीक्षा के योग्य है, अन्य नहीं। दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः। मनोवाक्काय धर्माय मताः सर्वेऽपिजन्तवः॥७९१॥ उपासकाध्ययन अर्थात्-दीक्षा के योग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण हैं । श्री मूलाराधना में भी इसप्रकार है । "कर्मभूमिषु च बर्बरचिलातकपारसीकापिदेशपरिहारेण अंगबंगमगधादिदेशेषु उत्पत्तिः । लब्धेऽपि देशे चांडा. लादिकुलपरिहारेण तपोयोग्ये कुलजातौ ।" पृ० ६५३ । अर्थात्-कर्म भूमि में बर्बर चिलात आदि देशों को छोड़कर अंग, बंग, मगधादि सूदेशों में उत्पन्न होना कठिन है । यदि सुदेश में भी उत्पन्न हो गया तो चांडाल आदि कुलों को छोड़ कर तप के योग्य अर्थात् जिनदीक्षा के योग्य कुल में उत्पन्न होना दुर्लभ है । इसीप्रकार अन्य आचार्यों ने भी मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन कुलों में उत्पन्न हुए मनुष्य को जिनदीक्षा के योग्य बतलाया है। क्या ये सभी आचार्य जैनसिद्धान्त के विरुद्ध मनुस्मृति के अनुसार कथन करने वाले माने जा सकते हैं। श्री कुन्दकुन्दादि महानाचार्यों के वाक्यों को भी यदि प्रमाण न मानकर अपने कपोलकल्पित इस सिद्धान्त 'एक द्रव्य-गुण-पर्याय का दूसरे द्रव्य-गुण-पर्याय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता', के बल पर दिगम्बरेन्तर समाज की तरह शूद्र-मुक्ति सिद्ध करना अपने आपको दुर्गति में ले जाना है। -जं. ग. 4-2-65/1X/ इन्द्रसेन एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर प्रभाव शंका-क्या संहनन की कमी से वैराग्य में कमी हो जावे है ? समाधान-'संहनन' नामकर्म का भेद है । जो छहप्रकार का है-१. वनवृषभनाराचमंहनन २. वज्रनाराचसंहनन, ३. नाराचसंहनन, ४. अर्धनाराचसंहनन, ५. कीलितसंहनन, ६. असम्प्राप्तसृपाटिकासंहनन । जिसके उदय से अस्थि बन्धन में विशेषता होती है वह संहनन नामकर्म है, अतः पुद्गलविपाकी है। इसका फल शरीर में होता है। यद्यपि यह कर्म और शरीर दोनों पौद्गलिक हैं जीवद्रव्य से अन्य हैं तथापि इनकी विशेषता से जीव की गति में विशेषता हो जाती है । प्रथमसंहननवाला जीव ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है । प्रथम तीन संहननवाले जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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