Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 9
________________ (७) अनुकम्पा सम्यग्दर्शन का लक्षण है।' स्वयं श्री कुंदकुंद आचार्य ने बोधपाहुड में बतलाया है कि धर्म विशुद्ध अर्थात् निर्मल होता है। भावपाहुड में मुनि को छह काय के जीवों की दया करने का उपदेश दिया है, तथा जो मुनि करुणाभाव से संयुक्त है वह समस्त पापों का नाप करता है ऐसा कहा है, शीलपाहुड़ में कहा है कि जीव-दया शील का परिवार है। और रयणसार में दया को प्रशस्तधर्म बतलाया है। फिर वे ही श्री कुंदकंद आचार्य प्रवचनसार गाथा २५ में करुणाभाव को मोह का चिह्न कैसे कह सकते थे? इस गुत्थी को सुलझाने के लिये श्री जयसेन आचार्य ने 'करुणाभाव' की करुणा-अभात्र ऐसा सन्धि विच्छेद करके यह बतलाया कि करुणा का अभाव मोह का चिह्न है। करुणा जीव का स्वभाव है उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है, किन्तु अकरुणा (करुणा का अभाव) संयम घाती (चारित्रमोहनीयकर्म) का फल (चिह्न) है 10 (८) ज्ञानी और अज्ञानी से अभिप्राय प्रायः सम्यग्दृष्टि से लिया जाता है, श्री जयसेन आचार्य ने गाथा २३८ में बतलाया कि “जो वीतरागसमाधि में स्थित है वह आत्मज्ञानी है और जो निर्विकल्पसमाधि से रहित है वह अज्ञानी है।" यदि अज्ञानी का अर्थ मिथ्यादृष्टि लिया जाय तो मिथ्यादृष्टि के तो कर्मों की अविपाकनिर्जरा होती नहीं है। अतः मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा यह नहीं कहा जा सकता कि अज्ञानी जिन कर्मों को सहस्र कोटि वर्ष में खपाता है ज्ञानी उनको क्षणमात्र में क्षय कर देता है । यह कथन निर्विकल्पसमाधि की अपेक्षा ही सम्भव है। (६) गाथा २५४ की टीका में बतलाया है कि गृहस्थ के निश्चयधर्म संभव नहीं है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्श गुणस्थान में निश्चयसम्यक्त्व नहीं होता है । क्योंकि गाथा १४४ की टीका में बतलाया है कि निश्चयसम्यग्दर्शन वीतरागचारित्र का अविनाभावी है। (१०) गाथा २५५ में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि का शुभोपभोग मात्र पुण्य बंध का कारण नहीं है किन्तु परम्परा मोक्ष का कारण भी है। इसी प्रकार अन्य भो बहुत ऐसे स्थल हैं जहाँ पर श्री जयसेन आचार्य ने विषयों को स्पष्ट किया है कलेवर बढ़ जाने के भय से उनको यहीं पर नहीं दिया जा रहा है स्वाध्याय करने से वे स्थल स्वयं ध्यान में आ जायेंगे। सहारनपुर म रतनचन्द मुख्तार दीरनिर्वाण दिवस सम्वत् २४६४ १--प्रशम संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सम्थक्त्वम् । (धवल पु० १०, पृ० ११५१) २-"धम्मो दयाविसुओ" (बोधपाहुर गा० २५) ३-छज्जीत्र सडायदणं" (भावपाहुड गा० १३२) ४.-"जे करुणा भावसंजुत्ता ते सध्धदरिय खंभ हणंति" (भावपाड मा० १५७) ५-"जीवदया सील्लस्स वरिवारो" (शीलपाहुट गाथा १६) ६-"दयाइ सद्धम्मे" (रयणसार गाथा ६५) ७-"करुणाजीव सहावस्स कम्मणिदत्तविरोहादो। अकरुणा कारण कम्म तवं ? ण एस दोसो, संजमघादि कम्माणं फलभावेण तिस्से अम्भुबगमादो।" (धजल १३ पृ० २६२)

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