Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(१७) बे, अर्थात् आ उत्तरथी प्रत्युत्तर आपवाने समर्थ श्रता नथी. अहिं एम समजवानुं ने के, जेम गोचरीना उद्देशथी निकलेला साधु वचमां आवी मलता साधुउने वंदना करे , तेम ते चारण मुनियो वचमा आवता नंदीश्वरादि तीर्थोनी प्रतिमाने स्वरसथी वंदना करे , अने ते वादलावगर श्रयेली अमृतवृष्टिनी जेम परम हर्षनी हेतुरूप बे. ७ __सूत्रमा " चेआई वंदे" ए पदनो एवो अर्थ के के “जेम नगवंते कडं तेमज नंदीश्वरादिकमां अवलोक्यु. अहा ! जगवंतनुं ज्ञान यथार्थ सत्य , एम अनुमोदना करे " कारण के चैत्य शब्दनो अर्थ ज्ञान थाय जे. आप्रमाणे मुग्ध लोकोमी पर पदामां मस्तक धुणावी व्याख्यान करता एवा कुतिलपहास्य करतां थकां कहे . ज्ञानं चैत्यपदार्थमाह न पुन र्मूर्ति प्रतीयों घिषन् वंद्यं तत्तदपूर्ववस्तुकलना दृष्टार्थसंचारिक धातुप्रत्ययरूढिवाक्यवचनव्याख्यामजानन्नती प्रज्ञावत्सु जडः श्रियं न लनते काको मरालेष्विव ।
अर्थः- श्री जिनशासननो देषी कुमति चैत्यशब्दनो अर्थ झान कहे . पण प्रनुनी मूर्ति कहेतो नथी. जे ज्ञान जोयेला अर्थमां संचारी ने ते बतां पण ते ते अपूर्व वस्तुने जणाववाथी वंदना करवायोग्य . धातु, प्रत्यय, रूढि, वाक्य अने वचननी व्याख्याने नहि जाणतो ते जडमति हंसोनेविषे कागडानी जेम विधानोमां शोला पामतो नथी. ७