Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 154
________________ (१३०) ते सर्व प्रयोजनना मूलरूप परब्रह्मना स्वादने आपनार होवाथी जगवंतनी मूर्तिनुं दर्शन नव्य प्राणीयोने परम हितकारी ने एवं द्योतन थाय . १०० हवे प्रार्थना गीत स्तुति कहे जे. त्वद्रुपं परिवर्ततां हृदि मम ज्योतिःवरूपं प्रजो, तावत् यावदरूपमुत्तमपदं निष्पापमाविर्भवेत् । यत्रानंदघने सुरासुरसुखं संपंडितं सर्वतो, नागेऽनंततमेपि नैतिघटतां कालत्रयीसंजवि ॥११॥ अर्थ-हे प्रनु, पापना दयवालुं, रूपरहित, उत्तमपदस्वरूप अने फलसाधनरूप एवं अप्रतिपाती ध्यान ज्यां सुधी प्रगट न थाय, त्यां सुधी मारा हृदयमां तमारूं रूप अनेक प्रकारे ज्ञेयाकार रूपे परिणाम पामो. जे आनंदघनमां त्रिकाल संजवी अने सर्व तरफथी एकत्र येलुं सुर असुरनु सुखपण अनंतमा लागे घटतुं नथी. १०१ विशेषार्थ-हे प्रनु, पापना क्यवालु, रूपरहित, उत्तम पद स्वरूप, फल साधनरूप एवं अप्रतिपाती ध्यान ज्यां सुधी प्रगट न थाय त्यां सुधी मारा हृदयमां तमारूं रूप अनेक प्रकारे ज्ञेयाकारवडे परिणाम पामो. आनंदघन एटले आनंदना एक रसमां त्रिकाल संजवी अने सर्व तरफ एक राशिरूप श्रयेलु, सुर असुरनुं सुख अतिशे अनंतमा लागमां पण घटनाने प्राप्त न थाय. ते विशे रुषिए कह्यु ने के "सुरनर सुहं सम्मत्तं सव्वहा पिंडिअं अनंतगुणं णवि पावे मुत्ति सुहणंताहिं विवेग वग्गु

Loading...

Page Navigation
1 ... 152 153 154 155 156 157 158