Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 148
________________ (१३५) एवी धर्मागताने ते अव्य स्तवना अधिकारमा ब्रांतिरहित जोइए जीए. कारणके प्रस्थक विगेरे दृष्टांत वडे नैगम नयनी विचित्र प्रवृत्ति थाय जे. वली कहयुं ने के, नक्तिविधि वसे रचित एवा जव्यस्तवमां पुण्य पण धर्म नथी. आपकारनी धर्मतिओनी कुमति ले अने सबुद्धिवाला पुरुषोनो ते ते नयथी जे विविध प्रकारनो उपदेश ने ते जड धर्मतिने क्लेशकारक थाय तेमां शुं आश्चर्य ? ते लुंपक पूजाने अधर्म कहे , कुमतिपाश सागरमति मिश्रपदनो आश्रय करी तेने अनुसरे ने, बीजी विधिमां ब्रांत थइ तेने पुण्य कहे अने शुल गन्नमां उत्तम एवा विद्वानो तेने धर्म कही अमृतसाररूप वाणी वदे जे. एy हवे गंजीर एवा या विचारमा गुरूनी परतंत्रतानी सफलता बतावी उपदेश सर्वस्व जणावे . इत्येवं नयनंगहेतुगहने मार्गे मनीषोन्मिषे, न्मुग्धानां करुणां विना न सुगुरोरुद्यतां स्वेदया। तस्मात् सद्गुरुपादपद्यमधुपः स्वं संविदानो बल, सेवा तीर्थकृतां करोतु सुकृती अव्येण नावेन वा ए६ अर्थ-एवी रीते नैगमादि नयो, संयोगो अने हेतुओ वडे गहन एवा मार्गमा स्वेचाथी उद्यमवंत एवा मुग्ध पुरुषोनी बुद्धि कुगुरूनी दयाविना उडशे नही, तेथी पोताना सद्गुरूना चरणकमलमां नमररूप एवो सुकृती पुरुष पोतानी योग्यतानुं बलजाण व्यथी के लावधी श्रीतीर्थकर प्रनुनी सेवा करो. एy विशेषार्थ-एवी रीते नैगमादि नयो, संयोगो, हेतुओ अने

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