Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 147
________________ ( १३१) तस्माच्छुकतरं चतुर्दशगुणस्थाने हि धर्म नयः, किं ब्रूते न तदंगतां त्वधिकृतेप्यत्रांतमीदामहे ॥५॥ अर्थ-सराग कर्म ते पुण्य अने वीतराग कर्म ते धर्म, एम शास्त्रमा कहेलुं ने, आवो शुछ नयनो अर्थ सांजली सद्बुद्धिवाला पंडितोने एकांत उराग्रह राखवो योग्य नथी. तेथी अतिशुद्ध अवो निश्चय नय चौदमा गुण स्थानमां शुं धर्मने न कहे ! १ अर्थात् कहेज. अमे तो ऽव्य स्तवना अधिकारमा ते शुद्ध निश्चयानिमत धर्मनी अंगताने ब्रांति रहित जोइए जीए. एए विशेषार्थ-मूलमां च शब्द निश्चयार्थमां ने अने अनेद क्रम ने अटले आलोकमांज जे पुण्य ते सराग कर्म ने अने जे वीतराग कर्म ने ते शास्त्रने विषे धर्म कहेलुं ने, आवो शुद्ध नयनो अर्थ सांगली पंडितोए एकांतबुद्धि अर्थात् एकांत उराग्रह करवो योग्य नथी कारणके, एक नयमा आग्रह करवो ते मिथ्यात्व रूप ने अने बीजा नयनो विचार करवाथी ते मूलमांधी उखडी जायचे. वली लखे बे के " धम्मकंखिए पुण्य कंखिए" इत्यादिकमां श्रुत चारित्र लदणधर्म के अने तेनुं फलरूप शुन्न कर्म कहेलुं ; तेथी अर्थात् तेवा अवांतर निश्चये करीने जे अति शुद्ध नय एटले निश्चय नय बे ते चौदमा गुणस्थानमा रहेलो , ते चरम समयमां शुं धर्म कहे तो नश्री? अर्थात् कहे जे. जो एकांत पुराग्रह राखवामां आवे तो ते पूर्वेनो सर्व अधर्म थाय अने तेथी तारे पण ते अनिष्ट थाय कारण के, अमे तो तदंगता एटले शुद्ध निश्चय नयने अनिमत

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