Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 150
________________ ( १३४ ) योना समूहना दूषणरूप जलवडे जे शंकारूप मलनुं प्रकालन थयुं, तेज तमारी, व्यवहार नयने योग्य एवी नक्ति करेली बे. अहिं यत् अने तत् शब्दनो नित्य संबंध बे, तेथी आ ते जक्ति के जे श्रा दालन बे-अहिं स्त्रीलिंग छाने नपुंसकलिं गनो जे संबंध बे ते दूषण नथी एम शिष्ट पुरुषो कहे बे. हवे पर सिद्धांतने दूषण श्रापी स्वसिद्धांतनुं स्थापन करवामां जगवंतना यथार्थ वचनना गुणनी स्तुति करवा योग्य उपासना पणुं व्यवहाररूप कहे बे. कदि या व्यवहारजक्ति होय तो पनी निश्चयनक्ति कर ? ते कहो. तेवी आकांक्षा रहेता कहे बे. पोताना आत्मारूप आराम-उद्यान, जे अत्यंत सुखनो हेतु होवा श्री नंदनवन ते जेमां बे एवो अथवा जे चारे तरफ मा ते राम कहेवाय; तेवो जे समाधि एटले शुभ उपयोग - रूप संप्रज्ञात समाधि अथवा पश्चिम विकटप निर्वचन प्रव्यार्थिक उपयोग लेशथी उत्पन्न थयेलो संप्रज्ञात लयरूप समाधिवडे बाधित करेलो ने एटले बाधित अनुवृत्तिश्री स्थापित कर्यो बे संसार जेम एवा ने निश्चय नयने प्राप्त थयेला एवा मो दूष्य, दूषक ने दूषणनी सत्ताने पण जोता नथी. एउ हवे साक्षात् स्तुति कहे बे. दर्श दर्शमवाप मव्ययमुदं विद्योतमाना लसद्, विश्वासं प्रतिमामकेनर हितखांते सदानंद यां । साधत्ते खरसप्रसृत्वगुणस्थानो चितामानमद्, विश्वासं प्रतिमामकेनर हितस्त्रांते सदानं दद्यां ॥ ए८||

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