Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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( १३३ )
उत्कृष्टादिकनी अपेक्षाए दशपंच विगेरे एकावयव वाक्यो, तेवडे गहन एवा मार्गमां स्वेवावडे उद्यम करता एवा मुग्ध पुरुषोनी बुद्धि कुगुरुनी दया विना उन्मेष पामे नही अर्थात् कांदा वगर विश्रांत थाय नहीं. तेथी पोताना सद्गुरूना चरणकमलमां चमर समान एवो सुकृती पुरुष पोतानी योग्यतारूप बलने जाएं। यथाधिकार प्रमाणे व्यथी गृहस्थ अने जावी साधु श्रीतीर्थकर प्रजुनी सेवा करो. कारण के जगवंतन नक्ति करवीते परम धर्म वे. ६
श्री शंखेश्वराधिष्टित पार्श्वनाथ प्रभुनुं संबोधन करी तेनामत रूप अमृतथी वाप्य एवा लुंपकने दूषित करतां, बेवटे स्तुति पुर्वक नयनेद बतावे बे.
सेयं ते व्यवहारज क्तिरुचिता शंखेश्वराधीश यद्, दुर्वा दिजदूषणेन पयसा शंकामलालनं । स्वात्मारामसमाधिबाधितनवैर्नास्मा जिरुन्नीयते, दूष्यं दूषकदूषण स्थितिरपि प्राप्तैर्नयं निश्चयं ॥ ए ॥
अर्थ- हे श्री शंखेश्वराधीश प्रभु ! दुष्टवादीर्जना समूहना दूषणरूप जलवडे जे शंकारूप मलनुं प्रकालन थयुं, तेज श्रातमारी व्यवहार नयने योग्य भक्ति करेली बे. पोताना आत्माने उद्यानरूप एवी शुन उपयोगरूप समाधि वडे जेमणे या संसा
बाधित कर्यो एवा ने निश्चय नयने प्राप्त थयेला अमे दूष्य, दूषक ने दूपानी सत्ताने जोता नथी. ए
विशेषार्थ - हे श्री शंखेश्वराधीश पार्श्वनाथ प्रभु ! दुष्ट वादी
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