Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(१२५) पण निश्चय नयथी ते मिश्रित थता नथी. आप्रकारनो विषना उद्गार रूप ज्रम तने केम थाय ? शुं विशेष आवश्यक रूप समुजना अमृतपान रूप एवी श्री जिननगणि क्षमाश्रमणनी वाणीनुपान तें नश्री कर्यु ? ए
विशेषार्थ-मन, वचन अने कायाना योगने निबंधन करवामां जे अध्यवसाय करवो ते परिणाम कहेवाय के जे परिपाम मन, वाणी अने कायाना व्यने टेकाथी उत्पन्न थाय ने अने तेनी बाह्य क्रियाना परिस्पंद रूप तेना लक्षणवाला योग थाय ने, ते नाव अने अव्य पणाथी बे प्रकारना कहेला ने, अर्थात् परिलाम पण बे प्रकारना अने योग पण बे प्रकारना वे. तेमां पेहेला जे लाव योगो ने, तेमां त्रीजी राशिना न कहेवाथी ते मिश्रित थती नथी; एटले शुल अने अशुल एवा अध्यवसायना स्थानको कहेला ने पण त्रीजोराशि कहेलो नथी, तेथीते अंत्य ऽव्य योगमां निश्चयथी मिश्रित थती नथी. श्राप्रकारनो तने चमरह्या करे बे, एटले तने विषना उद्गार रूप ब्रांत प्रयोग श्रया करे . कारणके सद्लाष्य जे विशेष आवश्यक ते रूप समुज तेना अमृतनुं पान तें जो कर्यु होततो श्रावो चमरूप विषनो उद्गार तने न श्राय. ए
संकीर्ण-मिश्र कर्म रूप फलना अनावधी पण संकीर्ण योग नथी एम व्यस्तवमा जे मिश्रपदनी प्रौढ उक्ति , ते खलतानोज विस्तार , ते कहे .. मिश्रत्वे खलु योगनाव विधया कुत्रापि कृत्ये जवे, मिश्रं कर्म न बध्यते च शबलं तत्संक्रमात्स्यात्परं।