Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(१२५) गृहस्थने बंधने प्रतिकूल धर्माधर्म रूप मिश्रपद कहेलो , ते विरति अने अविरतिना स्थानमा जे अन्वय ३ तेनी उत्प्रेदा अर्थात् स्वरूप मात्रथी कहेलो . ते कहेलो मिश्रपद आगल फलनी अपेक्षाए धर्ममां अंतर्हित श्रश् गयेलो बे. तेथी आ गृहस्थाने विशेष जोनारा पुरूषोनी दृष्टिए पूजा अने पौषधनी तुल्यता शुं स्पष्ट नथी ? अर्थात् स्पष्ट बे. ते वाणीना व्यवहारथी अने मिश्रपदना निश्चयथी अने धर्म पणाना हेतुथी स्पष्ट वे. ए त्रण पदनुं व्याख्यान सूत्र कृतांग सूत्रमा मूलवृत्तिथी जाणी लेवु. ए१ ___ अहिं कुतीर्थीनी दृष्टिने अनुसरेलो आचार अधर्म अने पोताना सिद्धांतने अनुसरेलो आचार ते धर्म जणाय जे. ए सर्व अभिप्राय लश् नक्ति अने रागने जुदा करी प्रव्य स्तवमा धर्म पदनो बलात्कारे अंगीकार करी कहे - हिंसांशो यदि दोषकृत्तव जड व्यस्तवे केन त, मिश्रत्वं यदि दर्शनेन किमु तनोगादिकालेपि न । जक्त्या चेन्नतु सापि का यदि मतो रागो नवांगं तदा, हिंसायामपि शस्तता नु सदृशीत्यत्रोत्तरं मृग्यते॥ए॥ ___ अर्थ-हेजड ! जो ऽव्य स्तवमां हिंसानो अंश दोष करनार रे तो, कोनी साथे मिश्रपणुं थाय; जो समकितनी साथे मिश्रपणुं होय तो नोगादि कालमां ते मिश्रपणुं केम न थाय, अने जो नक्तिनी साथे मिश्रपणुं होयतो ते नक्ति केवी ? जो नक्तिनो अर्थ राग कहोतो ते संसारनुं अंग थाय; जो नक्ति-राग