Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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( १०४ )
करेलो बे. लिंगमां दोष ने गुण बनेनुं सत्व बे ने प्रतिमामां दोष ने गुणनं सत्व वे अर्थात् बताएं बे, तेथी लिंगने विषे जानुं रोपण शके नहीं, परंतु प्रतिमामां थइ शके. ७३ वली उपर कहेला जावनुं विशेष विवेचन करी वादीनुं मुग्धपणुं दर्शावे बे.
लिंगे स्वप्रतिबद्धबुद्धिकलनाङ्गाज्या नवेद्वंद्यता, सैकांतात् प्रतिमासु जावजगवद्भूयोगुणोद्बोधनात् । तुल्ये वस्तुनि पापकर्मरहिते जावोपि चारोप्यते, कूटद्रव्यतया धृतेत्र न पुनर्मोहस्ततः कः सतां ॥७४॥ अर्थ-लिंगने विषे पोताना संबंधी धर्मबुद्धिना स्मरणथी तेनी द्यता या सत् धर्मनी प्राप्तिमां तेनालंबनवडे तेन निंद्यता था, वो अर्थ थाय बे; अने जाव जगवंत संबंधी घा गुणोना बोधथी ते वंद्यता प्रतिमाने विषे तो एकांतपणे कहेली बे. ते जावपण तुझ्य एटले उजयना श्रावथी पापचेष्टाथी रहित एवी वस्तुमां श्रारोपित थाय बे, परंतु कूट प्रव्यपणे रहेली ए वस्तुमां जाव आरोपित थतो नथी. ते कारणथी उत्तम पुरुषोने शुं मोह बे ? ७४
जावार्थ- पोताना संबंधी जे धर्म तेनी बुद्धिना स्मरणथी - र्थात एक संबंधी ज्ञानमां पर संबंधीनुं स्मरण थाय, ए न्यायथी, लिंग संबंधी सद् धर्मनी स्थितिना श्रालंबनपणाथी तेनी वंद्यताथाय ने असद् धर्मनी प्राप्तिमां तेना श्रालंबनवने
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