Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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( १०३ )
उपर कहेला जावमां व्यंग्य अर्थने कंठवडे स्पष्ट करवा कहे बे. चैत्यानां नहि लिंगिनामिव नतिर्गठांतरस्यो चिते, त्येतावद्वचसैव मोहयति यो मुग्धाञ्जनानाग्रही । तेनावश्यकमेव किं न ददृशे वैषम्यनिर्णायकं, लिंगे च प्रतिमासु दोषगुणयोः सत्वादसत्वात्तथा ७३
अर्थ - बीजा लिंगधारीनी जेम बीजा गन्नुना चैत्यने नमस्कार करवो योग्य नथी. आवां वचनोथी जे मुग्धजनोने मोहित करे मिध्यात्वना श्राग्रहवाला बे, ते शुं आवश्यक निर्युक्ति नामनुं शास्त्र जोयुं नथी ? के जे शास्त्र लिंगने विषे दोष तथा गुणना सत्यश्री ने प्रतिमाने विषे दोष ने गुणना सत्व विषमपणाने निर्णय करनारूं बे. ७३ भावार्थ जेम बीजा लिंगधारीने नमस्कार करवो योग्य नथी, तेम बीजा गन्ना चैत्यने नमस्कार करवो योग्य नथी. आ प्रकारनां वचनोथी जे जोला अंतःकरणना मनुष्योने जरमावे बे.
हिं पांच अवयवनो प्रयोग या प्रमाणे करवो-जेमके बीजा गन्नी प्रतिमा वांदवी नही, कारणके बीजा गन्नुना लोकोए ग्रहण करेली वे तेथी; जेजे वीजा गडवाला ग्रहण करेल होय ते ते वांदवा योग्य नथी. जेम बीजा गहनो साधु वंदनीय नथी तेम. वली श्रमारा गुरुए जे कह्युं ते सत्य केम होय ?
वाने जे मिथ्यात्वना आग्रहवाला बे, तेमणे शुं श्रावश्यक निर्युक्ति नामनुं शास्त्र जोयुं नथी ? के जे शास्त्रमां लिंग प्रतिमा संबंधमां विषमपणाने निर्णय करनारो जाव प्रतिपादन