Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(00) संकाशादिवदिष्यते गुणनिधिर्धर्मार्थमृद्ध्यर्जनं, शुझालंबनपदपातनिरतः कुर्वन्नुपेत्यापि हि ॥५॥
अर्थ-श्री जिन पूजानी विधिमां आरंजनी शंका करता अने अन्य आरंजना कार्योंने करता एवा श्रावकने त्रण दोष लागे ने एम कडं जे. प्रथम मोह, बीजो दोष शासननी निंदा अने त्रीजो दोष बोधि ( सम्यक्त्व )नो नाश. तेथी जे श्रावक शुध आलंबननो पदपाती होय, ते संकाश नामना श्रावकनी जेम धर्मार्थे अन्योपार्जन करीने पण गुणनिधितरीके सर्व जनने इष्ट थाय बे. ५७
विशेषार्थ-बीजा श्रारंन करनार अर्थात् जिनमंदिर, जिनपूजाविधिमां आरंजनी शंका धारण करी ते नहीं करनार एवा अन्य कार्योना आरंन करनार नीच श्रावकने मुख्यत्वे करी त्रण दोष लागे जे. प्रथम दोष मोह , कारण के पोताना इष्ट अर्थनी संपत्तिने माटे तेने मतिविन्रम थाय ने अने तेथी शुलानुबंधी अनुष्ठानने आरंज मानी ते करतो नथी. बीजो दोष, शासननिंदा , कारणके अन्य: जनसमुदाय कहे जे के आ मनुष्य केवो कृपण ने, अन्य कार्योमा व्यनो व्यय करे , परंतु पोताना इष्ट देवना आराधनने माटे मंदिर के पूजा विधिमां अव्यनो व्ययतो बिलकुल करतो नथी, तेथी तेमना इष्टदेव तेवो उपदेश करी गया दशे; एवीरीते अनुक्रमे ते श्रावक पोताना कृत्यश्री. बीजा मनुष्यो पासे शासननी निंदा करावे . त्रीजो दोष बोधि अर्थात् सम्यक्त्वनो नाश, कारण के परमात्मानी