Book Title: Pramana Pariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 50
________________ ३२ : प्रमाण-परीक्षा उनका भी यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि जागृत अवस्थामें होने वाला यथार्थ ज्ञान स्पष्टतया अर्थव्यवसायात्मक प्रतीत होता है। यदि वह अर्थका निश्चय न करे तो प्रतिपत्ताओंकी उससे अर्थमें असन्दिग्ध प्रवृत्ति नहीं हो सकती (किन्तु) उनकी उससे अर्थमें असन्दिग्ध प्रवृत्ति होती है, अतः अर्थनिश्चयात्मकताके बिना सम्यग्ज्ञानसे बाह्य वस्तुमें प्रवृत्ति न होनेके कारण सम्यग्ज्ञान अर्थव्यवसायात्मक है।। 'मिथ्याज्ञानसे भी अर्थमें प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः अनेकान्त है' यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्याज्ञानसे जो प्रवृत्ति होती है वह प्रवृत्ति नहीं, प्रवृत्त्याभास (मिथ्या प्रवत्ति) है। कारण कि वह प्रवृत्ति निश्चित किये अर्थकी प्राप्ति में निमित्त नहीं है। और सम्यक प्रवृत्ति वही है जो निश्चित किये अर्थको प्राप्त करानेमें समर्थ है । और वह सम्यक् प्रवृत्ति मिथ्याज्ञानसे सम्भव नहीं है, अतः अनेकान्त नहीं है। इसके अतिरिक्त हमारा प्रश्न है कि अर्थव्यवसायात्मकताके निरासके लिए जो अनुमान उपस्थित किया गया है वह अपना व्यवसाय (निश्चय) करता है या नहीं ? यदि करता है तो अनुमानगत हेतु उसीके साथ अनैकान्तिक हो जाता है, क्योंकि वह ज्ञान या स्वव्यवसायात्मक होनेपर भी अपने साधनीय अर्थका व्यवसायात्मक सिद्ध है। द्वितीय विकल्प स्वीकार करने पर तो उस अनुमानसे अभीष्टकी सिद्धि नहीं होती। कारण कि वह अपने साधनीय अर्थका वह व्यवसायात्मक नहीं है, जैसे अनुमानाभास स्वसाध्यका साधक नहीं होता। इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय, कोई भी अनुमान हो, वह अपने साध्यको सिद्ध करने या असाध्यको दूषित करने पर अर्थव्यवसायात्मक माना जायेगा। उसे अर्थव्यवसायात्मक न मानने पर वह अभीष्टका साधक और अनभीष्टका दूषक नहीं हो सकेगा। यहाँ यह कहना भी युक्त नहीं कि 'इष्टका साधन और अनिष्टमें दूषण' की व्यवस्था तो परप्रसिद्ध (जैनों आदि द्वारा अभिमत) अर्थव्यवसायी प्रमाणसे स्वीकार करनेसे हमें प्रमाणको अर्थव्यवसायात्मक माननेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब प्रश्न उठता है कि परकी मान्यताको आप प्रामाणिक मानते हैं या नहीं ? यदि प्रामाणिक नहीं मानते, तो पराभिमत अर्थव्यवसायी प्रमाणसे स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषणको व्यवस्थाकी बात कैसे बन सकती है । उसे प्रामाणिक न मानना और उससे व्यवस्थाको स्वीकार करना परस्पर विरोधी कथन है। ऐसे कथनको अविचारपूर्ण कहा जावेगा। अगर परकी मान्यताको प्रामाणिक माना जाता है तो जिस प्रमाणसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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