Book Title: Pramana Pariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 126
________________ १०८ : प्रमाण-परीक्षा है, जो उससे निष्पन्न होती है। इस तरह प्रमाण और अज्ञाननिवृत्तिरूप साक्षात् फलमें कथंचित् भेद भी सिद्ध है। इस विवेचनसे क साधनरूप' प्रमाणमें और फलमें भी कथंचित् भेद जानना चाहिए क्योंकि स्व और बाह्य अर्थके निर्णयमें वह स्वतंत्र है और जो स्वतंत्र होता है वह कर्ता कहा जाता है तथा स्व और बाह्य अर्थका निर्णय अज्ञाननिवृत्तिरूप होनेसे क्रियारूप है । क्रिया क्रियावान्से न सर्वथा भिन्न ही होती है और न सर्वथा अभिन्न ही । अन्यथा दोनोंमें क्रिया और क्रियावान्की व्यवस्था नहीं बन सकती। यहाँ यह कहना भी यक्त नहीं है कि 'प्रमितिमात्रं प्रमाणम्'-'प्रमिति ही प्रमाण है' इस प्रमाणशब्दकी व्युत्पत्तिके आधारपर भावसाधन प्रमाणसे अज्ञाननिवृत्तिरूप फल अभिन्न ही है, क्योंकि जिस समय प्रमाता उदासीन है, किसी पदार्थको जान नहीं रहा–अव्यापृत है उस समय भी भावसाधनप्रमाणरूप प्रमाणशक्ति सिद्ध है और वह शक्ति अज्ञाननिवृत्तिरूप फल नहीं हो सकती । वास्तवमें जो अपने तथा बाह्य पदार्थके सम्यक् जानने में संलग्न है वही प्रमाण प्रमाताके अज्ञानको दूर करनेमें समर्थ है, अन्य नहीं है, अन्यथा प्रमाताके वस्तुपरिच्छित्तिके लिए व्यापार न करनेपर भी अज्ञाननिवृत्ति हो जायेगी। अतः ठीक कहा है कि 'प्रमाणका फल प्रमाणसे कथंचित् भिन्न और अभिन्न है । यदि प्रमाणके फलको प्रमाणसे सर्वथा भिन्न स्वीकार किया जाय, तो उसमें अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह अभिन्न मानने में बाधाएँ आती हैं। तात्पर्य यह कि प्रमाणके फलको प्रमाणसे सर्वथा भिन्न अथवा सर्वथा अभिन्न स्वीकार करनेपर अनेक दोष आते हैं। पहला यहो कि भिन्न माननेपर प्रमाण-फलकी नियत व्यवस्था नहीं बन सकेगी । अमुक फल अमुक प्रमाताका ही है, अन्यका नहीं, यह व्यवस्था भंग हो जायगी, क्योंकि उनमें नियत व्यवस्थाको स्थापित करनेवाला कोई संयोगादि सम्बन्ध भी सम्भव नहीं है । दूसरा दोष यह है कि प्रमाणका फल प्रमाणसे अभिन्न स्वीकार करनेपर दोनों एक हो जायेंगे--यह जानना और बताना असम्भव हो जायेगा कि यह १. प्रमिणोति जानाति स्वपराथं यः सः प्रमाण : आत्मा इति कर्तृसाधनम् । एवं प्रमाणशब्दः करण-भाव-कर्तृसाधनेषु विष्वपि वर्तते विवक्षावशात्तथाप्रतीतेः ।-सं०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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