Book Title: Pramana Pariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 130
________________ ११२ : प्रमाण-परीक्षा विद्यानन्दके विशाल पाण्डित्य, सूक्ष्म प्रज्ञा, विलक्षण प्रतिभा, गम्भीर विचारणा, अद्भुत अध्ययनशीलता, अपूर्व तर्कणा आदिके सुन्दर और आश्चर्यजनक उदाहरण उनकी रचनाओंमें पद-पदपर मिलते हैं। उनके ग्रन्थोंमें प्रचुर व्याकरणके सिद्धि-प्रयोग, अनूठो पद्यात्मक काव्य-रचना, तांगमयुक्त वादचर्चा, प्रमाणपूर्ण सैद्धान्तिक विवेचन और हृदयस्पर्शी जिनशासनभक्ति उन्हें निःसन्देह उत्कृष्ट वैयाकरण, श्रेष्ठतम कवि, अद्वितीय वादी, महान् सैद्धान्ती और सच्चा जिनशासनभक्त सिद्ध करने में पुष्कल समर्थ हैं । वस्तुतः विद्यानन्द जैसा सर्वतोमुखी प्रतिभावान् तार्किक उनके बाद भारतीय वाङमयमें कम-से-कम जैन परम्परामें तो कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। यही कारण है कि उनकी प्रतिभापूर्ण कृतियां उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, लघु समन्तभद्र, अभिनव धर्मभूषण, उपाध्याय यशोविजय आदि जैन तार्किकोंके लिए पथप्रदर्शक एवं अनुकरणीय सिद्ध हुई हैं । माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख जहाँ अकलङ्कदेवके वाङमयका उपजीव्य है, वहाँ वह विद्यानन्दकी प्रमाण-परीक्षा आदि तार्किक रचनाओंका भी आभारी है। उसपर उनका उल्लेखनीय प्रभाव है' । वादिराजसूरि' (ई. १०२५) ने लिखा है कि यदि विद्यानन्द उकलङ्देवके वाङमयका रहस्योद्घाटन न करते तो उसे कौन समझ सकता था। विदित है कि विद्यानन्दने अपनी तीक्ष्ण प्रतिभा द्वारा अकलङ्कदेवकी अत्यन्त जटिल एवं दुरूह रचना अष्टशतीके तात्पर्यको 'अष्टसहस्री' व्याख्यामें उद्घाटित किया है। पाश्वनाथचरितमें भी वादिराजने विद्यानन्दके तत्त्वार्थालङ्कार (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक) तथा देवागमालङ्कार (अष्टसहस्री) की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक लिखा है-'आश्चर्य है कि विद्यानन्दके इन दीप्तिमान् अलड्रारोंकी चर्चा करने-कराने और सुनने-सुनाने वालोंके भी अङ्गोंमें कान्ति आ जाती है तब फिर उन्हें धारण करने वालोंकी तो बात ही क्या है।' प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि, हेमचन्द्र और धर्मभूषणकी कृतियां भी विद्यानन्दके तार्किक अन्थोंकी उपजीव्य हैं। उन्होंने इनके ग्रन्थोंसे स्थल १. प्रमाणपरीक्षा और परीक्षामुखकी तुलना, देखें-आप्तप०, प्रस्तावना पृ० २८-२९ । २. न्यायविनिश्चयविवरण भाग २, पृ० १३१ । ३. ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मयः । श्रण्वतामप्यलङ्कारं दीप्तिरङ्गषु रङ्गति ॥ पा० च० १-२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org

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