Book Title: Pramana Pariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 107
________________ प्रस्तावना : ८९ २. व्यापकविरुद्धकार्य—'यहाँ शीतस्पर्शसामान्यसे व्याप्त शीतस्पर्शविशेष नहीं है, क्योंकि धूम है।' निषेध्य शीतस्पर्शविशेषका व्यापक शीतस्पर्शसामान्य है, उसका विरोधी अनल है, उसका कार्य धूम है।। ३. कारणव्यापकविरुद्धकार्य-'यहाँ हिमसामान्यसे व्याप्त हिमविशेषजनित रोमहर्षादि नहीं है, क्योंकि धूम है ।' रोमहर्षादिविशेषका कारण हिमविशेष है, उसका व्यापक हिमसामान्य है, उसका विरोधी अग्नि है, उसका कार्य धूम है। ४. व्यापककारणविरुद्धकार्य-'यहाँ शीतस्पर्णविशेषव्यापक शीतस्पर्शसामान्यके कारण हिमसे होने वाला शीतस्पर्शविशेष नहीं है, क्योंकि धूम है ।' प्रतिषेध्य शीतस्पर्शविशेषका व्यापक शीतस्पर्शसामान्य है, उसका कारण हिम है, उसका विरोधी अग्नि है, उसका कार्य धूम है ! ५ कारणविरुद्धकारण-'इसके मिथ्याचरण नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थोपदेशका ग्रहण है।' मिथ्याचरणका कारण मिथ्याज्ञान है, उसका विरोधी तत्त्वज्ञान है, उसका कारण तत्त्वार्थोपदेशग्रहण है। ६. व्यापकविरुद्धकारण-'इसके आत्मामें मिथ्याज्ञान नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थोपदेशका ग्रहण है।' मिथ्याज्ञानविशेषका व्यापक मिथ्याज्ञानसामान्य है, उसका विरोधी सत्यज्ञान है, उसका कारण तत्त्वार्थोपदेशग्रहण है, ७. कारणव्यापकविरुद्धकारण-'इसके मिथ्याचरण नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थोपदेशका ग्रहण है।' यहाँ मिथ्याचरणका कारण मिथ्याज्ञानविशेष है, उसका व्यापक मिथ्याज्ञानसामान्य है, उसका विरोधी तत्त्वज्ञान है, उसका कारण तत्त्वार्थोपदेशग्रहण है। ८. व्यापककारणविरुद्धकारण-'इसके मिथ्याचरणविशेष नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थोपदेशका ग्रहण है।' मिथ्याचरणविशेषका व्यापक मिथ्याचरणसामान्य है, उसका कारण मिथ्याज्ञान है, उसका विरोधी तत्त्वज्ञान है, उसका कारण तत्त्वार्थोपदेशग्रहण है। ९. कारणविरुद्धव्याप्य-'सर्वथैकान्तवादीके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य नहीं हैं, क्योंकि विपरीत मिथ्यादर्शनविशेष है।' प्रशमादिका कारण सम्यग्दर्शन है, उसका विरोधी मिथ्यादर्शनसामान्य है, उससे व्याप्य विपरीतमिथ्यादर्शनविशेष है। १०. व्यापकविरुद्धव्याप्य-- 'स्याद्वादीके विपरीतादि मिथ्यादर्शनविशेष नहीं हैं, क्योंकि सत्यज्ञानविशेष है।' विपरीतादि मिथ्यादर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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