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प्रस्तावना : ५१ बाधा रहित होना दोनों निर्णीत हैं, जैसे निश्चितपना, अपूर्वार्थपना और लोकसम्मतपना ये तीनों उनके यहाँ निर्णीत हैं, वही कहा है
_ 'जो ज्ञान अपूर्वार्थ है, निश्चित है, बाधारहित है, निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न है और लोकसम्मत है वह प्रमाण है।'
नैयायिकोंकी अपेक्षा प्रवत्तिसामर्थ्य भी निर्णीत है । जैसा कि उनका वचन है कि 'प्रमाणसे अर्थका ज्ञान होता है और अर्थका ज्ञान होनेपर वह प्रवृत्तिमें समर्थ होनेसे सार्थ प्रमाण है । ____ बौद्धोंकी अपेक्षा अर्थक्रियाकी प्राप्तिमें निमित्त होना रूप अविसंवादीपना भी निर्णीत ही है। जैसा कि प्रमाणवात्तिक (१-३) में धर्मकीतिने कहा है___ 'अर्थक्रियाकी प्राप्ति होनेसे अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है । वक्ताके अभिप्रायका प्रकाशन करनेसे शब्द (शास्त्र) में भी अविसंवाद होता है।'
अतः उक्त पक्ष एक-एक जगह निर्णीति होनेसे चार्वाक मतकी अपेक्षा उनमें सन्देह होता है और तब हम चार्वाकोंका प्रश्न उठाना तथा प्रमाणतत्त्व एवं प्रमेयतत्त्वका निराकरण करना दोषावह नहीं ।
समाधान-यह सब कथन भी व्यवस्थित नहीं होता, क्योंकि प्रतिवादियोंके स्वीकारको प्रमाणपूर्वक या अप्रमाणपूर्वक माननेपर संशय नहीं हो सकता । इसका खुलासा इस प्रकार हैं-प्रतिवादियोंकी मान्यता यदि प्रमाणपूर्वक है तो उसमें सन्देह कैसे हो सकता है, क्योंकि प्रमाणपूर्वक स्वीकृत वस्तु निर्णीत होती है और निर्णीतमें सन्देह नहीं होता । यदि उनकी मान्यता अप्रमाणपूर्वक है तो भी उसमें सन्देह नहीं हो सकता, क्योंकि वह कहीं, कभी और किसी प्रकार निर्णयपूर्वक ही होता है। उसका निर्णय भी प्रमाणपूर्वक होता है, अप्रमाणपूर्वक नहीं, प्रमाणके अभावमें वह किसी भी तरह नहीं होसकता। इस विषयमें और अधिक कथन अनावश्यक है। सभीके इष्ट तत्त्वकी संसिद्धि है और वह निधि प्रमाणसे है अन्यथा किसीके भी इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती, यह हम ऊपर कह आये हैं।
जो सर्वथा शून्य, संवेदनाद्वैत, पुरुषात अथवा शब्दाद्वैतको मानकर प्रमाण और प्रमेयके भेदका निराकरण करते हैं वे भी उपर्युक्त विवेचनसे निरस्त हो जाते हैं, क्योंकि अपने स्वीकृत सर्वथा शून्य, संवेदनाद्वत आदिको कथंचित् इष्ट माननेपर उसकी सिद्धिके लिए प्रमाणकी सिद्धि अत्यन्त आवश्यक है । यदि वे उन्हें इष्ट नहीं मानते तो वे अपने सिद्धांतों
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