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प्रस्तावना : ८३
होती । अतएव कृत्तिकोदय और शकटोदयमें कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता। जैसे उनमें व्याप्य-व्यापकभाव नहीं बनता। किसी तरह उनमें कार्यकारणभाव भी बन जाय, तथापि हेतु (कृत्तिकोदय) में पक्षधर्मता नहीं है और वह पक्षधर्मताके बिना भी साध्यका साधक होता है । अतः पक्षधर्मता हेतुका लक्षण नहीं है। इसी तरह हेतु में सपक्षसत्त्वका निश्चय भी नहीं है, क्योंकि उसके अभावमें भी समस्त पदार्थोंको अनित्य सिद्ध करनेके लिए कहे जानेवाले सत्त्व आदि साधनोंको स्वयं प्रज्ञाकरने सम्यक् हेतु बतलाया है। तथा विपक्षासत्त्व (विपक्षमें न रहना) का निश्चय साध्याविनाभावरूप नियमके निश्चयरूप ही है, अतः उसे ही हेतुका प्रधान लक्षण मानना चाहिए, अन्य लक्षणोंको माननेसे क्या लाभ।
शंका-बात यह है कि हेतुके तीन दोष हैं-१. असिद्ध, २. विरुद्ध और ३. अनैकान्तिक। असिद्ध दोषके निराकरणके लिए हेतुमें पक्षधर्मताका निश्चय किया जाता है। विरुद्ध हेत्वाभासकी निवृत्तिके लिए सपक्षसत्त्व आवश्यक है और अनैकान्तिक दोषके निरासके लिए विपक्षासत्त्वका निश्चय अनिवार्य है। यदि हेतुमें इन तीन रूपोंका अनिश्चय रहे तो हेतुके उक्त असिद्धादि तीन दोषोंका परिहार नहीं हो सकता। अतः हेतुका त्रैरूप्य लक्षण सार्थक है । कहा भी है
'हेतुके तीन रूपोंका निश्चय असिद्ध, विरुद्ध और व्यभिचारी इन तीन दोषोंका निराकरण करनेके कारण प्रतिपादित किया गया है।' __ समाधान-उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उक्त तीनों दोषोंका परिहार तो हेतुमें अन्यथानुपपत्तिरूप नियमके निश्चयसे ही हो जाता है। जो हेतु असिद्ध होगा उसमें अन्यथानुपपत्तिरूप नियमका निश्चय हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार जो हेतु विरुद्ध या अनैकान्तिक होगा उसमें भी अन्यथानुपपत्तिरूप नियमका निश्चय नहीं हो सकता। साध्यके होनेपर ही हेतुका होना और साध्यके अभाव में हेतका न होना अन्यथानुपपत्ति अथवा तथोपपत्तिरूप नियमका निश्चय है । विरुद्ध तो साध्यके अभावमें ही होता है और अनैकान्तिक साध्यके अभावमें भी होता है । अतः विरुद्ध और अनैकान्तिक हेतुओंमें अन्यथानुपपत्तिरूप नियमका निश्चय सम्भव ही नहीं है। अतः असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक हेतुओंमें अन्यथानुपपत्तिरूप नियमका निश्चय नहीं है।
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