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डरतात
की भाषा रहती है, तब तक उसका व्याकरण के नियमों से प्राबद्ध या संस्कृत होना आवश्यक नहीं होता । उस समय तो वह कन्यभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा के रूप में हो प्रचलित रहती है। इसके विपरीत जब बही भाषा व्याकरण के नियमों से परिष्कृत कर दी जाती है ! तब उस का रूप कुछ मोर ही हो जाता है। यह नियम सभी भाषायों पर लागू होता है । संस्कृतभाषा जब जनसाधारण की कथ्य भाषा रही है तो उस समय उसका रूप भी व्याकरण के नियमों से परिमार्जित संस्कृतभाषा से सर्वथा पृथक था । संस्कृत भाषा का लौकिक और अलौकिक (वैदिक संस्कृत) यह द्वैविध्य रूप भी इसी तथ्य को परिपुष्ट कर रहा है। अतः किसी भाषा को मूखों की भाषा कहना और किसी भाषा को विद्वानों की भाषा बतलाना सर्वथा असंगत है, और अपनी बुद्धिहीनता को अभिव्यक्त करना है। सभी भाषाएं अपने-अपने युग में सम्मानित रही हैं, और सभी भाषाओं में जनजीवन के निर्माण, उत्थान एवं प्रभ्युत्थान के लिए कुछ-न-कुछ सामग्री मानद समाज को अवश्य प्रदान की है। अतः अपेक्षाकृत सभी भाषाएं प्राव रास्पद हैं। प्राकृतध्याकरण का द्वितीय खण्ड
प्राचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा विनिर्मित हैमशब्दानुशासन नामक व्याकरण पाठ अध्यायों में विभस है । पहले सात अध्यायों में संस्कृतभाषा के विधिविधान का निरूपण कर रखा है और प्राइवेअध्याय में प्राकृतभाषा का । हैमशब्दानुशासन के पाठवें अध्याय को ही प्राकृत-व्याकरण के नाम से पुकारा जाता है। प्राकृत-ध्याकरण में चार अध्याय हैं। इन चार अध्यायों को हमने दो खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम स्खण्ड में प्रादि के तीन पादों का व्याख्यान किया गया है। द्वितीय खण्ड में केवल चतुर्थ पाद का विवेचन है। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राकृत-व्याकरण का द्वितीय खण्ड ही उपन्यस्त किया गया है। इस स्खण्ड में दो टीकाएं प्रस्तुत की गई हैं। एक संस्कृतभाषा में है, दूसरी हिन्दीभाषा में । संस्कृत-टीका का नाम बाल मनोरमा रखा गया है जबकि हिन्दी-टीका नाम प्रात्मगुण-प्रकाशिका है। संस्कृत-टीका में प्राकृतभाषा के शब्दों को साधनिका प्रस्तुत की गई है। जैसे----- धर्मः यह शब्द संस्कत-भाषा का है. इस शब्द का प्राकत-भाषा में धम्मो यह रूप बनता है। प्राकृतव्याकरण के किस-किस सूत्र द्वारा धम्मो इस रूप की निस्पति होती है ? इसे किस तरह बनाया जाता है ? यह सब कुछ संस्कृत-टीका में प्रदर्शित किया गया है । मूलसूत्र तथा मुल सूत्र के कठिन स्थलों का एवं सूत्रोक्त शब्दों का भावार्थ हिन्दी-टोका में लिखा गया है।
प्राकृत-व्याकरण सटीक श्रमण भगवान महावीर की २५ वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में प्रकाशित किया गया है। इसका प्रथम खण्ड दो वर्ष हुए पाठकों की सेवा में समर्पित किया जा चुका है। प्राकृत भाषा के प्रचारक, प्रसारक एवं मनीषी विद्वानों ने इस प्रकाशन को कितना प्रादर एवं सम्मान प्रदान किया है, तथा मासिक पत्रिकाओं में समालोचक महानुभावों ने इस के सम्बन्ध में क्या-क्या अभिप्राय प्रदर्शित किया है ? उसका प्रस्तुत ग्रन्थ में ही अन्यत्र "पूज्य मुनिराजों तथा विद्वानों की वृष्टि में, प्राकृत व्याकरण (प्रथम खण्ड)" इस शीर्षक द्वारा उल्लेख किया जा रहा है।
- प्राकृत-ध्याकरण की टीका लिखने का क्या कारण रहा है ? इस सम्बन्ध में प्रथम खण्ड में निवेदन किया जा चुका है। प्राकृत-व्याकरण का द्वितीय खण्ड शीघ्राति-शीघ्र पाठकों के करकमलों में पहुंचा दिया जाए ? यह प्रबल भावना थी, किन्तु इस भावना को शीघ्र जो साकार रूप नहीं दिया जा सका, इसका सर्वाधिक कारण प्रेस वालों की व्यस्तता की अधिकता ही मानता हूं। जिस प्रेस में