________________
का मूल (प्रकृति नहीं है। संस्कृत भाषा को प्राकृत भाषा का उद्गम स्थान कहना व समझना सर्वथा भान्त है, असत्य है। ऐसी स्थिति में एक प्रश्न पैदा होना है कि यदि संस्कृतभाषा प्राकृतभाषा का मुलस्रोत नहीं है तो फिर प्राचार्य थी हेम बन्द्र आदि विद्वानों ने “प्रकृति संस्कृतम्" यह कह कर प्राकृतभाषा की उत्पत्ति संस्कृतभाषा से क्यों स्वीकार की है ? उत्तर में निवेदन है कि "प्रकृतिः संस्कृतम्" इन पदों द्वारा संस्कृतभाषा को प्राकृत भाषा की जो उत्पादिका कहा गया है, इस का कारण संस्कृतभाषा को आधार मान कर प्राकृत भाषा के शब्दों की रचना करना ही समझना चाहिये। वस्त-स्थिति यह है कि प्राकंत-व्याकरण के सभी निर्माताओं ने अपने व्याकरण ग्रन्थों का भाषा संस्कृत करती है. इसीलिए उन्होंने संस्कृत-शब्दों को प्राधार मानकर अथवा प्रकृति मानकर प्राकृतभाषा के विधिविधान का निरूपण किया है। ऐसा करने से संस्कृतभाषा की अपेक्षा प्राकृत भाषा में जो-जो विचित्रताएं उपलब्ध होती हैं वे सुविधापूर्वक समझी जा सकती है तथा प्राकृत भाषा का संस्कृत शब्दों के साथ जो-जो साम्य या वैषम्य सम्प्राप्त होता है, वह भी स्पष्टरूपेण अवगत किया जा सकता है। इसी प्राशय को लेकर प्राचार्य श्री हेमचन्द्र प्रादि विद्वानों ने "प्रकृतिः संस्कृतम्" इन शब्दों का प्रयोग किया है, न कि इस प्राशय को लेकर कि प्राकृतभाषा की उत्पत्ति संस्कृतभाषा से होती है।
हैमशब्दानुशासन व्याकरण पाठ अध्यायों में विभक्त है । आदि के सात अध्यायों में प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने संस्कभाषाकं विधि-विधान का निरूपण किया है तथा अन्तिम अष्टमाध्याय में प्राकृत भाषा की रूपरेखा उपन्यस्त की है। संस्कृत और प्राकृत इन दोनों भाषानों के विद्यार्थी यह भली भांति जानते हैं कि इन दोनों भाषामों के विधिविधानों में अनेकों समानताएं पाई जाती है। प्रतः प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने सर्वप्रथम सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का वर्णन कर दिया है, तदनन्तर प्राकृत-भाषा-सम्बन्धी जो अन्तर था उसका अष्टमाध्याय में उल्लेख कर दिया है। यदि स्वतंत्र रूप से प्राकृत भाषा के समस्त विधि-विधान का निरूपण किया जाता तो उन को बहुत बड़ा विशाल-काय प्रन्थ तैयार करना पड़ता। अतः लाघव को ध्यान में रखकर प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने संस्कृत और प्राकृत इन दोनों भाषाओं में जो पार्थक्य है उस को अपने ढंग से संसूचित कर दिया है। क्योंकि सर्वप्रथम संस्कृत-भाषा का निरूपण किया गया था. तत्पश्चात प्राकृत भाषा का. of प्राचार्य श्री हेमचन्द्र ने संस्कृतभाषा को प्राकृतभाषा की प्रकृति {मूलस्रोत) स्वीकार कर लिया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं लेना चाहिये कि संस्कृतभाषा प्राकृतभाषा की जननी है। संभव है, यदि याचार्य श्री हेमचन्द्र पहले सात अध्यायों में प्राकृत भाषा के विधि-विधान का निर्देश कर देते मोर तदनन्तर वे संस्कृतभाषा का निर्देश करते तो उस समय वे "प्रकृतिः संस्कृतम्" इन पदों का उल्लेख न करके "प्रकृतिः प्राकृतम्" ऐसा ही उल्लेख करते । साम्प्रदायिकता का विष
इस के अतिरिक्त, कुछ लोग साम्प्रदायिकता-जन्य द्वेष से इतने अधिक द्वेषी बने हुए दष्टिगोचर होते हैं कि कुछ कहते नहीं बनता । वे यह कहते भी सकुचाते नहीं है कि प्राकृतभाषा तो मूखों की भाषा है और संस्कृतभाषा विद्वानों की । वस्तुतः ऐसी ऊलजलूल बात करने वाले स्वयं मूह और गंभीरता से शून्य प्रतीत होते हैं । वस्तुतः भाषा कोई भी हो, जब तक वह जन-साधारण