________________
पाठ-परिचय :
पाठ १७ : णयर - वणणं
प्राकृत काव्यों में वस्तु-वर्णन के अन्तर्गत नगर वर्णन के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं। इन वर्णनों से प्राचीन समय के नगरों की संरचना का पता चलता है और कवि के काव्यगुण की भी जानकारी मिलती है । प्रस्तुत नगर-वर्णन प्राकृत के प्रमुख काव्यग्रन्थ सुरसुन्दरीवरियं से लिया गया है। इस ग्रन्थ की रचना ई० सन् १०३८ में श्री धनेश्वरसूरि ने की थी। मुनि श्री राजविजय ने इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है । इस ग्रन्थ के 'नगर-वर्णन' से ज्ञात होता है कि वह हस्तिनापुर नामक नगर किले के परकोटे से घिरा हुआ था । उसमें अच्छे भवन थे। वहाँ के निवासी कलाओं कुशल थे । नगर की सुन्दरता दर्शनीय थी ।
में
६८
पक्खि-भयुप्पायरण विसाल - सालेख रमणीय - मगर - तोरण- गोउर-दारेहिं
नील- बहल उववरण- विरायमारगाव सारण-भागेहिं मत्ता लंब - गवक्खय-जुएहि
नागा-भूमि- जुहि तनयर-वासि - जरग - जस-थू हेहि
पासाएहि
किज्जत व रज्जेहिं परिपूरिएहि तो
Jain Educationa International
ब्व
तह प्रवरावर-देसागएण after-कला- निउरणं पइदियहं
परिगयं रम्मं । परिकिन्न ॥१॥
I
वरचित्त- जुत्तेहिं ॥२॥
तुसार-धवलेहिं ।
निच्चमइरम्मं ||३||
तन्नयर - वारिणा चेव । वणिय - लोए
||४॥
विरायमाणं श्ररोग हट्ट हिं । बहु-मुल्ल कियागग-सएहि ||५||
उत्त ुंग-मगर - तोरण-पवण द्वय धवल धय- वडड्ढेहिं 1
सुन्दर देवउ
उवसोहिय सुन्दर - पएस || ६ ||
For Personal and Private Use Only
प्राकृत काव्य - मंजरी
www.jainelibrary.org