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। पाठ १६ : गुरूवएसों पाठ-परिचय :
प्राकृत में कुछ ग्रन्थ गद्य-पद्य दोनों में लिखे मये हैं। ऐसे ग्रन्थों को विद्वानों ने चम्पूकाव्य कहा है। आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्य उद्द्योतनसूरि के द्वारा आठवीं शताब्दी में जालोर में लिखित कुवलयमालाकहा इसी प्रकार का चम्पूकाव्य है। कुवलयमाला प्राकृत कथा-साहित्य का प्रतिनिधि ग्रन्थ है । यह कथा, काव्य, संस्कृति की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका सम्पादन डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने किया है।
'कुवलयमालाकहा' में कुवलयमाला एवं कुवलयचन्द के चार जन्मों की कथा वणित है। क्रोध, मान. माया, लोभ और मोह इन पांच भावनाओं को कथा के पात्र बनाकर उनके जीवन के उत्थान की कथा इस ग्रन्थ में कही गई है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति अपने दुगुणों और अनैतिक आचरण को सज्जन लोगों के सम्पर्क तथा अपने पुरुषार्थ से सुधार सकता है। जीवन में अच्छा आचरण धारण करने के लिए इस ग्रन्थ के पात्रों को सन्त पुरुष कुछ उपदेश देते हैं। उन्हीं में से कुछ उपदेशों को यहाँ गुरु-उपदेश के नाम से दिया जा रहा है ।
मा मा मारेसु जोए मा परिहव सज्जणे करेसु दयं। मा होह कोवरणा भो खलेसु मित्ति च मा कुरणह ॥१॥ मा कुणह जाइगव्वं परिहर दूरेण धण-मयं पावं।। मा मज्जसु गाणेणं बहुमाणं कुणह जहरूवे ।।२।। मा हससु परं दुहियं कुणसु दयं णिच्चमेव दीगम्मि ।। पूएह गुरु णिच्चं वंदह तह देवए इ8 ॥३॥ सम्माणेसु परियणं पणइयणं पेसवेसु मा विमुह । अण मण्णह मित्तयणं सुपुरिसमग्गो फुडो एसो ॥४॥ मा होह गिरण कंपा ण वंचया कुरणह ताव संतोसं । मागत्थद्धा मा होह णिक्किंपा होह दायरा ।।५।।
प्राकृत काव्य-मंजरी
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