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२. यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। बूंद-बूंद से समुद्र बन जाने वाली महानदियों को देखो ।
३. विनय से रहित व्यक्ति की सारी शिक्षा निरर्थक हो जाती है । विनय शिक्षा का फल है (और) विनय का फल सबका कल्याण है ।
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जल, चन्दन, चन्द्रमा, मुक्ताफल, चन्द्रमणि (आदि) मनुष्य को उस प्रकार सुखी नहीं करते हैं, जिस प्रकार अर्थयुक्त, हितकारी, मधुर और संयत वचन ( सुखी करते हैं ) ।
जिस प्रकार गंधरहित पुष्प भी देवता का प्रसाद है, ऐसा मानकर सिर पर रख लिया जाता है उसी प्रकार सज्जन लोगों के बीच रहने वाला दुर्जन भी पूज्यनीय हो जाता है ।
दुर्जन की संगति से सज्जन भी निश्चय ही अपने गुरण को छोड़ देता है । जैसे जल अग्नि के संयोग से ( अपने ) शीतल स्वभाव को छोड़ देता है ।
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सज्जन लोग ( अपने गुणों को) वाणी से न कहते हुए कार्यों से प्रकट करने वाले होते हैं और अपने गुणों को न कहते हुए वे मनुष्य-लोक में ऊपर उठे हुए हैं।
८. नहीं कहने वाले भी मनुष्य के विद्यमान गुण नष्ट नहीं होते हैं । जैसे (अपने तेज का) बखान न करने वाले सूरज का तेज संसार में प्रसिद्ध है ।
६. आत्म-प्रशंसा को हमेशा ( के लिए) छोड़ दो, (अपने ) यश के विनाश करने बाले मत बनो। क्योंकि अपनी प्रशंसा करता हुआ मनुष्य लोगों में तिनके के समान हल्का हो जाता है ।
१०. वचन से ( अपने ) गुणों को जो कहना है, वह उन गुणों का नाश करना होता है और आचरण से गुणों का प्रकट करना उनका विकास करना होता है ।
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प्राकृत काव्य - मंजरी
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