Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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अपठित प्राकृत गाथाएँ
१. वीरभडपसंसा
रिगव्वुब्भइ सोडीरं प्रप्पsिहत्थलहुश्रो हसिज्जइ पहरो । वड्ढइवेराबंधो . असंधिज्जन्ति साहसेसु समत्था || १॥ रंग पडई पडिए वि सिरे मूलविहिन पि न भिज्जइ हि दुष्परिइयं ण लग्गइ लाविज्जन्तं पि पडिभडारण रणभ
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प्रवीणा किज्जइ सुमरिज्जइ संसए वि सामिप्रसुक रंग गरिगज्जइ विरिणवा दट्ठ वि भत्रम्मि संभरिज्जइ लज्जा ॥३॥ सीडोरेण पप्रावो छात्रा पहरेहिं विक्कमेहिं परिश्रणो । arrer श्रहमाणो रक्खिज्जइ अ गरुप्रो सरीरेण जसो ||४॥ भिज्जइ उरो रंग हिमश्रं गिरिंगा भज्जइ रहो ण उरंग उच्छाहो । छिज्जन्ति सिंररिहाना तुरंगा उरंग रणदोहला सुहडारणं ॥५॥
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देइ रसं रिउपहरों वहइ धुरं विक्कमस्स वेराबंधो । वाड्ढमरणरहसो 'दप्पं वड्ढइ ग्रामो इभारो ||६||
साहेइ रिउ व जसं रण सहइ आरिअं व कालक्खेवं । लहइ सुहं मिव णासं जीनं मुइ समुहं पहरणं व भडो ||७||
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धारेन्ति जसस्स धुरं एन्तं रंग सहन्ति विक्कमस्स परिहवं । रोस्स करेति धिई मारणं वड्ढेन्ति साहसस्स समत्था ||*
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रावणवहो (सेतुबन्ध) - प्रवरसेन, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३५ से उद्धृत । गाथानुक्रम आश्वास १३ की गाथा सं० १२, १३, १६, ३५, ३६, ४१, ४२ एवं ४६ ।
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प्राकृत काव्य-मंजरी
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