Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 194
________________ ११. (वास्तव में) महिमा में (और) गुणों के फल में (सम्बन्ध है, किन्तु) दुष्ट पुरुष (जो सोचते हैं कि) अगुणों के फल के द्वारा महिमाएँ बन्धी हुई (हैं; वे) __ गुणों (के अन्दर) ने विपरीत उत्पत्ति को चाहते हैं। १२. जैसे-जैसे इस समय सुरण शोभायमान नहीं होंगे तथा जैसे-जैसे (इस समय) दोष फलेगे, वैसे-वैसे जगत् भी अगुणों के आदर से गुण-शून्य हो जायगा । १३. आश्चर्य ! दुष्ट पुरुष नीच संगति में ही प्रसन्न होते हैं, (यद्यपि) सज्जन (उनके) निकट (होते हैं), वह निश्चय ही (दुर्जनों की) स्वेच्छाचारिता है कि रत्नों के सुलभ होने पर (भी उनके द्वारा) काँच ग्रहण किया जाता है। १४. व्यवहार से ही मनुष्य के स्वाभाविक रंगरूप को देखो, (उसके) हृदय से क्या? मणियों के भी प्रकाश का उद्भव जो बाहर की ओर से (होता है) वह (उनके ) टूटने पर (भीतर से) नहीं (होता है)। 000 पाठ ३१ : प्राकृत अभिलेख ६. इस श्रीभिल्लुक (राजा का) और दुर्लभ देवी (रानी) का महान् गुणों से गौरव शाली, शोभायुक्त कक्कुक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। मन्द विकसित मुस्कान वाले, मधुर बोलने वाले, देखने में सौम्य, विनम्र (और) दीनतारहित जिस (कक्कुक) का क्रोध क्षणिक (और) मैत्री स्थिर (रहने वाली थी)। ८. जनता के कार्य (लोकहित) के अलावा (अन्य व्यर्थ के कार्यों में) जिस (राजा) के द्वारा (कभी ) म बोला गया, न (कुछ) किया गया, न देखा गया, न याद किया गया, न (कहीं) ठहरा गया (और) न (कहीं) भ्रमण किया गया । प्राकृत काव्य-मंजरी १८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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