Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ ३. जिनके हृदय काव्यतत्त्व के रसिक होते हैं, उन (व्यक्तियों) के लिए निर्धनता में भी (कई प्रकार के) सुख होते हैं (तथा) वैभव में भी (कई प्रकार के) दुःख ४. लक्ष्मी की थोड़ी मात्रा भी उपभोग की जाती हुई शोभती है तथा सुखी करती है, किन्तु किंचित् भी अपूर्ण देवी सरस्वती (अधूरी विद्या) उपहास करती है । ५. दुर्जनों द्वारा कही हुई निन्दा सज्जनों को लगेगी अथवा नहीं लगेगी (कहा नहीं जा सकता), किन्तु वह (निन्दा) सज्जनों की निन्दा (से उत्पन्न) दोष के कारण उन (दुर्जनों) को (ही) घटित हो जाती है। जिनके लिए असमान (व्यक्तियों) के द्वारा की गई प्रशंसा भी निन्दा के समान होती है, उनके मन को उन (असमान व्यक्तियों) के द्वारा की गई निन्दा भी खिन्न नहीं करती है। ७. अत्यधिक लोग सामान्य मतित्त्व के कारण उन (सामान्य कवियों) के ग्रहण (सम्मान) में प्रसन्नता पूर्वक (तत्पर रहते हैं)। इसलिए ही सामान्य कवि प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। दूसरे का छोटा गुण भी (महान् व्यक्ति को) प्रसन्न करता है, (किन्तु) उसे अपने बड़े गुण में भी संतोष नहीं (होता है)। शील और विवेक का यह, इतना ही सार है। ६. महापुरुषों के गुण सामान्य (व्यक्तियों) में भी प्रकट होते हैं, (किन्तु उनके गुणों द्वारा) सर्व प्रथम उत्तम आत्माएँ ग्रहण की गयी (हैं), जैसे चन्द्रमा की किरणे पहले पर्वत के ऊपर के भाग पर रुकी, (फिर) धरती पर। १०. (स्व- पर के) कल्याण को सिद्ध करते हुए (मनुष्यों) के लिए समग्र (लोक) ही अधिक कल्याणकारी (हो जाता है)। उनके लिए कुछ इस प्रकार सिद्ध होता है, जिससे वे स्वयं भी आश्चर्य को प्राप्त करते हैं । १८२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204