Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 171
________________ १६. वह सेठ-पुत्र भी फलक को प्राप्त कर प्रियतम (मित्र) की तरह (उसका) सहारा ले लेता है और तैरता हुआ किसी-किसी प्रकार से गिरावर्त नामक पर्वत पर पहुँचता है। (और वह सोचता है-) १७. 'पुरुषों के लिए आपत्ति ही कसौटी की तुलना को धारण करती हैं । इस (आपत्ति __ रूपी कसौटी) पर खरा उतरा हुआ जो (व्यक्ति) है, वास्तव में वही स्वर्ण की तरह खरा (शुद्ध) है। ००० पाठ १६ : गुरु-उपदेश १. हे (मानव) ! जीवों को मत मारो, (उन पर) दया करो, सज्जनों को अप मानित मत करो, क्रोधी मत होओ और दुष्टों में मित्रता मत रखो। २. कुल का घमण्ड मत करो, दूर से ही धन के मद को त्याग दो, पाप में मत डूबो ज्ञान के प्रति वास्तविक रूप से सम्मान करो। ३. दूसरे दुखी लोगों पर मत हँसो, हमेंशा ही दीनों पर दया करो, सदा बड़ों की पूजा करो तथा इष्ट देवताओं की वन्दना करो। ४. परिजनों का सम्मान करो, प्रेमीजनों के प्रति उपेक्षा मत करो, मित्रजनों का अनुमोदन करो, यही सज्जनों का स्पष्ट (सरल) मार्ग है।' ५. अनुकम्पा से रहित मत होओ, धूर्त (और) कृपा से रहित मत बनो, किन्तुसंतोष करो, घमण्ड में स्थित मत होओ, (अपितु) दान में तत्पर बनो । ६. किसी की भी निन्दा मत करो, अपने गुणों को ग्रहण करने में संयमी होओ, अपनो प्रशंसा मत करो यदि निर्मल यश चाहते हो तो। ७. दूसरे के कार्य की निन्दा मत करो, अपने कार्य में वज्र के बने हुए की तरह (दृढ़) होओ (तथा) सम्पत्ति में नम्र होओ, यदि अपनी शोभा चाहते हो तो। १६० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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