Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 186
________________ से जलाया जाता हुआ (भी) दीपक अपने आधार (स्थान) को काला कर देता है। . ३. गरमी की धूप से तपे हुए राहगीर के लिए अपनी छाया के समान, कंजूस आदमी की धन-समृद्धि होती हुई भी निष्फल ही (न होने के बराबर) होती ४. दुष्ट व्यक्ति में की जाती हुई ही मैत्री पानी में (खींची जाती हुई) लकीर की तरह नष्ट हो जाती है। किन्तु सज्जन (व्यक्ति) में की हुई वह ( मैत्री) पत्थर की लकीर की तरह अमिट (हो जाती है) । ५. सज्जन (प्रथम तो) क्रोधित ही नही होता है, यदि क्रोधित होता है (तो) बुरा नहीं सोचता है। यदि (बुरा) सोचता है (तो बुरा) कहता नहीं हैं (और) यदि कहता है (तो उसके लिए) लज्जित होता है । धन बह, जो हाथ में (हो), मित्र वह जो आपत्ति में (भी) अन्तर न लाये, वह सौन्दर्य (है). जहाँ गुण (हों और) वह विवेकपूर्वक ज्ञान है, जहाँ चरित्र हो। ७. अन्तिम अवस्थाओं (संकट की घड़ियों) में भी स्वाभिमानी (व्यक्ति) का हृदय ऊँचा ही रहता है। अस्त होने के समय में भी सूरज की किरणें ऊपर की ओर ही चमकती हैं । ८. हे माता! पक्षी भी परेशान हुए बिना अपना पेट भर लेते हैं। किन्तु आपत्तिग्रस्त (लोगों) का उद्धार करने वाले सज्जन व्यक्ति कोई-कोई ही होते हैं। ६. अधिक क्रोध से कलुषित भी सज्जन के मुखों से (बातों से) अप्रिय (वचन) कहाँ से (निकलेंगे)? राहु के मुख में भी चन्द्रमा की किरणें अमृत को छोड़ती हैं। १०. वैभव से हीन सज्जन (व्यक्ति) अपमानित हुआ भी उस प्रकार से खिन्न नहीं प्राकृत काव्य-मंजरी १७५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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