Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 179
________________ ५. ६. अहिंसा ही सभी आश्रमों का हृदय और सभी शास्त्रों का उत्पत्ति-स्थान (आधार), सभी व्रतों का सार (तथा) सभी गुणों का समूह ( है ) । ७. ८. जीव का घात खुद का घात (होता है), जीव के लिए दया खुद के लिए होती हैं उस कारण से आत्म-स्वरूप को चाहने वालों (महापुरुषों) के द्वारा सब जीवों की हिंसा छोड़ी हुई ( है ) । E. जो महापापी (व्यक्ति) क्षण मात्र के सुख के लिए जीवों को मारते हैं, वे राख ( प्राप्ति) के लिए हरिचन्दन के वन समूह को जलाते हैं । भूसे के समान ( सारहीन) उन करोड़ों पदों (शिक्षा- वाक्यों) को पढ़ लेने से क्या लाभ ( है ), जो इतना ( भी ) नहीं जाना ( कि) दूसरे के लिए पीड़ा नही करनी ( पहुँचानी) चाहिए । मरण के भय से डरे हुए जीवों की जो निरन्तर रक्षा की जाती है, उसे सभी दानों में सिरमौर अभयदान जानो । १०. जो दयायुक्त मनुष्य हमेशा जीवों के लिए अभय-दान देता है उस (व्यक्ति) के लिए इस जीवलोक में कहीं से भी भय उत्पन्न नहीं होता है । ११. क्षमा ( गुण) से रहित (अन्य ) सभी गुण सौभाग्य को प्राप्त नहीं होते हैं । जैसे - तारक समुदाय से युक्त ( भी ) रात्रि कलायुक्त चन्द्रमा के बिना ( शोभा को प्राप्त नहीं होती है) । १२. (मैं) सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझको क्षमा करें, मेरी सब प्राणियों से मित्रता [ है ], किसी से मेरा वैर नहीं है । * गाथा नं ० १ से ५ एवं १२ का अनुवाद 'समरणसुत्तं - चयनिका ' गाणी की पाण्डुलिपि से लिया गया है । १६८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000 डॉ० कमलचन्द प्राकृत काव्य - मंजरी www.jainelibrary.org

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