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कुछ था उसे ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा है।
विकास के चरण:
प्राकृत भाषा के स्वरूप को प्रमुख रूप से तीन अवस्थानों में देखा जा सकता है। वैदिक युग से महावीर युग के पूर्व तक के समय में जनभाषा के रूप में जो भाषा प्रचलित थी उसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहा जा सकता है, जिसके कुछ तत्त्व वैदिक भाषा में प्राप्त होते हैं। महावीर युग से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक आगम ग्रन्थों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में प्रयुक्त प्राकृत भाषा को द्वितीय स्तरीय प्राकृत नाम दिया जा सकता है। और तीसरी शताब्दी के बाद ईसा की छठी शताब्दी तक प्रचलित एवं साहित्य में प्रयुक्त प्राकृत को तृतीय स्तरीय प्राकृत कह सकते हैं। उसके बाद देश की क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ प्राकृत का विकास होता रहा है।
प्रादि युग :
द्वितीय स्तरीय प्राकृत के प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं— (क) आदि युग (ख) मध्य युग एवं (ग) अपभ्रंश युग।
प्रथम युग की प्राकृत के प्रमुख पांच रूप प्राप्त होते हैं - १. प्रार्ष प्राकृत -- महावीर और बुद्ध के उपदेशों की भाषाएँ-अर्धमागधी,
शौरसेनी तथा पालि । २. शिलालेखी प्राकृत-अशोक, खारवेल एवं अन्य राजाओं के लेखों की प्राकृत
भाषा
३. निया प्राकृत - निया प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा,
जो प्राकृत से मिलती-जुलती है।
प्राकृत काव्य-मंजरी
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