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[ख] प्राकृत काव्य साहित्य की रूपरेखा
प्राकृत भाषा में काव्य-रचना प्राचीन समय से ही होती रही है। आगम-ग्रन्थों एवं शिलालेखों में अनेक काव्य-तत्त्वों का प्रयोग हुआ है। प्राकृत भाषा के कथा-साहित्य एवं चरित ग्रन्थों में भी कई काव्यात्मक रचनाएँ भी उपलब्ध हैं। पादलिप्त की तरंगवतीकथा तथा विमलसूरि के पउमचरियं में कई काव्य-चित्र पाठक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग इसमें हुआ है। उत्प्रेक्षा का एक दृश्य दृष्टव्य है-- संध्याकालीन कृष्ण वर्ण वाले अन्धकार से युक्त गगन सभी दिशाओं को कलुषित कर रहा है। यह तो दुर्जन का स्वभाव है, जो सज्जनों के उज्ज्वल चरित्र पर कालिख पोतता है -
उच्छरइ तमो गयरणो मइलन्तो दिसिवहे कसिरणवणो । सज्जणचरिउज्जोयं नज्जइ ता दुज्जण सहावो ॥
-पउमचरियं २-१०० इसी तरह वसुदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, सुरसुन्दरीचरियं आदि अनेक प्राकृत कथा व चरित-ग्रन्थों में प्राकृत-काव्य के विविध रूप देखने को मिल सकते हैं । इन ग्रन्थों में काव्य का दिग्दर्शन कराना मुख्य उद्देश्य नहीं है, अपितु कथा एवं चरित विशेष को विकसित करना है । किन्तु प्राकृत साहित्य में कुछ इस प्रकार के भी ग्रन्थ हैं, जिन्हें विशुद्ध रूप से काव्य ग्रन्थ कहा जा सकता है। प्राकृत चूकि ललित एवं सुकुमार भाषा रही है, अतः उस में काव्यगुण साहित्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। प्राकृत के प्रसिद्ध कवि हाल, प्रवरसेन, वाक्पतिराज, कोऊहल आदि की काव्य रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं।
रसमयी प्राकृत काव्य के जो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं, उन्हें तीन भागों
प्राकृत काव्य-मंजरी
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