Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ किं बहुणा भरिणएणं, जह तह व मए अवस्स गंतव्वं । तं निच्छयं मुरणेउं विसज्जिो तेहिं कहकहवि ॥८॥ काऊण जलहिपूयं चलणे नमिऊग जणणि-जणयाण । दिन्नासीसो तेहिं चडिओ वहरपंमि सेट्ठि-सुप्रो ॥६॥ चरिणउत्तेहि समेग्रो सुवियक्खण-णेय-मित्त-संजुत्तो। पवरणरष कुलेरखं पत्तने दोबंमि एपंमि ॥१०॥ मण-इच्छिय-लाहेण विक्किरिणय कयारणगाई तत्थेव। गहिऊरण अहिरणवाइं तेरण उप्पेलियं वहणं ॥१२॥ जा कि पि गयो मग्गं उच्छलियो ताव कालिया वायो। संजायं वद्दलयं खलुव्वरवे गज्जिो मेहो ॥१२॥ डुल्लेइ जाणवत्त मणब्व दारिद्द-पीडिय-जणस्स । जा निज्जामय-लोभो खिबइ अहो नंगरो झत्ति ।।१३।। आउल-वाउल-हियमो उस्सारइ जाव सियवडे वियडे । संचारइ य जाब य माउलयाई सुबहुयाई ।।१४।। ता फुट्ट तं वहणं जलहिमज्झे इच्छियं रहस्मं व । को वि मनो को वि पुणो फलहं लहिऊरण उत्तरिमओ ।।१५।। सिटि-सुप्रो विहु फलहं अवलंबइ बल्लहं व लहिऊण । तरमारणो कहकहमवि गिरिमि पत्तो गिरावते ॥१६॥ पुरिसाण आवयच्चिय बहेइ कसवट्टए सतुल्लत्त । एयाए निवडियो जो खलु करणयं व सो जच्चो ॥१७॥ ००० । 'पाहयकहासंगहो' सं० - पं० श्रीमानविजय एवं पं० श्रीकान्तविज , उद्ध त । पायानुक्रम-पृ० ४१, गाथा १८ से २५, २८ से ३५ एवं ४० । कृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204