Book Title: Prakaran Sangraha
Author(s): Jaina Publishing Company
Publisher: Jaina Publishing Company

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Page 6
________________ // सिन्दूर प्रकर॥ DINE-HEIRBIGIGNORDINONEIGEResperateICER TORAGEME-CA : ॥श्व ज्रावृत्तम् // यः प्राप्य सुष्पाप्या मदं नरत्वं, धर्म न यत्नेन करोति मूढः। क्लेशप्रबन्धेन स लब्ध मन्धी, चिन्तामाणि पातयति प्रमादात् // 4 // // मन्दाक्रान्तावृत्तम् // स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते, पीयूषण प्रवरकरिणं वाहयत्यैन्धनारम् / . चिन्तारत्नं विकिरति कराघायसोडायनार्थ, यो पुष्पापं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः // 5 // . ॥शार्दूलविक्रीमितम् / / ते धत्तूरतरुं वपन्ति- नवने प्रोन्मुट्य कल्पद्रुमं, चिन्तारत्नमपास्य काचशकझं स्वीकुर्वते ते जमाः। विक्रीय हिरदं गिरीन्सदृशं क्रीणन्ति ते रासनं, ये लब्धं परिहत्य धर्ममधमा धावन्ति चोगाशया // 6 // * ॥शखरिणीवृत्तम् // अपारे संसारे कयमपि समासाद्य नृ नगं, न धर्म यः कुर्याविषयसुखतृष्णातरलितः / ब्रुमन् पारावारे प्रवरमपहाय प्रवहणं, स मुख्यो मूर्खाणामुपनमुपत्नन्धुं प्रयतते // 7 // erGHerCG-SASTERTISIS GEET-CGHEASONGteaef4estern

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